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आत्मकर्तृत्व की चर्चा भी उपलब्ध होती है और साथ ही इसमें बाह्य आडम्बर-बाहरी दिखावे रूप धर्म को निष्फल बताते हुए मुनि के शुद्ध धर्म की प्ररूपणा भी की गई है। २१. समुद्रपालीयं : इस अध्ययन में समुद्रपाल के जन्म, बाल्यकाल, युवावस्था, वैराग्य, आदर्श साधुजीवन एवं सिद्धिगमन का वर्णन है। अतः इसका नाम समुद्रपालीय है। इसमें २४ गाथायें हैं।
चम्पानगरी में पालित नाम का एक श्रावक रहता था। एक बार वह जलमार्ग से व्यापार के लिए रवाना हुआ और पिहुण्ड नगर पहुंचा। वहां किसी सम्पन्न सेठ ने अपनी पुत्री का विवाह उस पालित श्रावक से कर दिया। कुछ समय पश्चात् उसने अपनी गर्भवती पत्नी के साथ स्वदेश की ओर प्रस्थान किया। पत्नी ने जहाज में ही एक पुत्र को जन्म दिया। समुद्र में जन्म लेने से उसका नाम समुद्रपाल रखा गया।
समुद्रपाल बड़ा हुआ। उसका विवाह कर दिया गया। एक बार उसने राजमार्ग पर एक भयंकर अपराधी को वध के लिए ले जाते हुए देखा। उसे विद्रूप वेशभूषा में गधे पर बिठा कर नगर में घुमाया जा रहा था। यह देखकर समुद्रपाल सोचने लगा कि अच्छे कर्मों का फल अच्छा एवं बुरे कर्मों का फल बुरा होता है। कृत कर्मों को भोगे बिना छुटकारा नहीं है। ये विचार करते करते उसका मन संवेग एवं वैराग्य से भर गया और माता-पिता की अनुमति प्राप्त कर वह अनगार बन गया।
उपर्युक्त घटना के उल्लेख के बाद इस अध्ययन में साधु के आचार सम्बन्धी महत्त्वपूर्ण बातों का निरूपण किया गया है, यथा- साधु प्रिय एवं अप्रिय दोनों परिस्थितियों में अपने मन को सन्तुलित रखे। व्यर्थ की बातों से अलग रहे। देश-काल-परिस्थिति को ध्यान में रखकर विचरण करे। विवेक एवं संयमपूर्वक जीवनयात्रा सम्पन्न करे। अन्त में इसमें विशुद्ध संयम के पालन के द्वारा समुद्रपाल के सिद्ध, बुद्ध एवं मुक्त होने का उल्लेख किया गया है। २२. रथनेमीय : प्रस्तुत अध्ययन का नाम – रथनेमीय है। यह नाम बाईसवें तीर्थकर नेमिनाथं परमात्मा के लघुभ्राता रथनेमि से सम्बन्धित है। इसमें ५१ गाथायें हैं।
७ 'अप्पा कता विकता य, दुहाण य सुहाण य ।
अप्पा मित्तममित्तं च, दुप्पाट्ठिय सुपट्टिओ ।'
- उत्तराध्ययनसूत्र २०/३७ । .
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