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अनाथीमुनि जब ‘मण्डिकुक्षि उद्यान में ध्यानस्थ थे तब वहां मगध सम्राट श्रेणिक का आगमन हुआ। मुनि के दमकते चेहरे और उभरते यौवन से राजा श्रेणिक विस्मय विमुग्ध होकर सोचने लगा – 'यह सौन्दर्य, यह यौवन तो भोग के लिए है, योग के लिए नहीं।' राजा मुनि के निकट गया। ध्यान पूरा होने पर राजा ने मुनि को वन्दना की और बोलाः 'हे मुनि ! आपका युवावस्था में गृह त्याग कर सन्यासी बनने का कारण क्या है ? मुनि बोले : 'राजन्! मैं अनाथ था, मेरा कोई नाथ नहीं था, इसलिए मैं साधु बन गया। मुनि की बात सुनकर श्रेणिक बोले कि यह बात है तो चलो मैं आपका नाथ बनता हूं। आप मेरे साथ चलें और सुखपूर्वक सांसारिक भोगों का आनन्द लें। मुनि बोले 'राजन्, तुम स्वयं अनाथ हो और जो स्वयं अपना नाथ नहीं है वह भला दूसरों का नाथ कैसे हो सकता है?' यह सुनकर राजा श्रेणिक गहन आश्चर्य में पड़ गये। वे बोले : मैं, अपार ऐश्वर्य का स्वामी, मगध सम्राट हूं। मैं अनाथ कैसे हो सकता हूं ?
.... मुनि राजा के आश्चर्य को दूर करते हुए बोले : ' हे राजन् ! आप अनाथ और सनाथ की सही परिभाषा नहीं जानते हो। धन, सम्पत्ति और ऐश्वर्य होने मात्र से कोई सनाथ नहीं होता क्योंकि मैं भी अपने पिता का प्रिय पुत्र था। घर में अपार धन-सम्पदा थी। परिवार में मां, भाई, बहन, पत्नी और परिजन सभी थे। किन्तु एक बार जब मैं व्याधिग्रस्त हुआ – आंखों में उत्पन्न तीव्र वेदना से त्रस्त एवं पीड़ित होने लगा, तो मुझे उस वेदना से कोई बचा नहीं सका। बड़े-बड़े चिकित्सक मुझे स्वस्थ नहीं कर सके। अपार ऐश्वर्य भी मेरी पीड़ा को मिटा नहीं सका। परिवारजन आंसू बहा-बहा कर रह गये परन्तु कोई भी मुझे पीड़ा से मुक्त न कर सका। यही मेरी अनाथता थी।'
‘राजन् ! अन्त में मैंने संकल्प कर लिया कि यदि इस पीड़ा से मुक्त हो जाऊं तो मुनि बन जाऊंगा। इस संकल्प का विशिष्ट प्रभाव हुआ। रात बीतने के साथ-साथ मेरा रोग शान्त होता चला गया और प्रातःकाल होते ही मैं मुनि बन गया। मैंने सच्ची सनाथता को उपलब्ध कर लिया, क्योंकि मैं अपना तथा दूसरों (त्रस और स्थावर जीवों) – का नाथ हो गया। मैंने आत्मा पर शासन किया, यह ही मेरी सनाथता है।'
मुनि के मार्मिक वचनों से राजा के ज्ञान चक्षु खुल गए। वे बोले कि 'महर्षि, आप ही सही अर्थों में सनाथ एवं सबान्धव हैं। मैं आपसे धर्म का अनुशासन चाहता हूं।' इस प्रकार राजा भी जिनधर्म में अनुरक्त हो गया। प्रस्तुत अध्ययन में
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