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________________ एक बार मृगापुत्र अपनी पत्नियों के साथ गवाक्ष में बैठा था। इतने में उसकी दृष्टि एक निर्ग्रन्थ मुनि पर पड़ी। मृगापुत्र मुनि को अनिमेष देखते हुए सोचने लगा कि मैंने ऐसा रूप पहले कहीं देखा है। चिन्तन की गहराई में उतरते हुए मृगापुत्र के अध्यवसाय शुद्ध होते गए और उसे जाति-स्मरण ज्ञान प्रकट हो गया जिससे उसे पूर्वजन्म में स्वयं द्वारा स्वीकृत संयम का स्मरण हो आया और उसका मन विरक्त हो गया। मृगापुत्र अपने माता-पिता के पास आया और बोला कि मैं प्रव्रज्या लेना चाहता हूं। अतः आप मुझे आज्ञा प्रदान करें। माता-पिता पुत्र को अनेक प्रकार से समझाते हैं एवं संयम जीवन की कठोरता का दिग्दर्शन कराते हुए कहते हैं कि साधु-जीवन नंगे पैर तलवार पर चलने तथा लोहे के चने चबाने के समान अत्यन्त कष्टप्रद है और बेटा, तुम सुकोमल हो, अतः सन्यास ग्रहण मत करो। उत्तर में मृगापुत्र नरक की दारूण वेदना का चित्रण प्रस्तुत करता है। तब माता-पिता कहते हैं कि पुत्र तुम्हारा कथन ठीक है परन्तु चिकित्सा न करवाना संयम-जीवन का सब से बड़ा दुःख है। मृगापुत्र कहते हैं कि जंगल में पशुओं के रूग्ण होने पर कौन उनकी चिकित्सा एवं सेवा-शुश्रुषा करता है ? वैसे ही मैं मृग-चारिका सदृश्य जीवन बिताऊंगा। अन्त में मृगापुत्र की दृढ़ता एवं वैराग्य भावना से प्रभावित होकर माता-पिता ने मृगापुत्र को संयम स्वीकार करने की अनुमति दे दी। मृगापुत्र मुनि बन गये और शुद्ध संयम का पालन कर शुद्ध, बुद्ध एवं मुक्त हो गये। इस प्रकार प्रस्तुत अध्ययन में मृगापुत्र एवं उनके माता-पिता के मध्य हुए प्रेरणास्पद संवाद का सुन्दर संकलन है। • २०. महानिन्थीय : महानिर्ग्रन्थीय उत्तराध्ययनसूत्र का बीसवां अध्ययन है। जैन साधुओं का प्राचीन नाम निर्ग्रन्थ है। आचार्य उमास्वाति ने लिखा है- 'जो कर्मग्रन्थी खोलने का प्रयास करता है, वह निर्ग्रन्थ है।" प्रस्तुत अध्ययन में महानिर्ग्रन्थ अनाथीमुनि और राजा श्रेणिक के बीच अनाथ और सनाथ के संदर्भ में हुआ संवाद संकलित है। अतः इस अध्ययन का नाम महानिर्ग्रन्थीय रखा गया है। इसमें ६० गाथायें हैं। ७६ उत्तराध्ययनसूत्र - १६/७६; ७७ 'ग्रन्थ काष्टविधं, मिथ्याविरतिदुष्टयोगाश्च । तज्जयहेतोशठं, संयतते यः सः निर्ग्रन्थः ॥' - प्रशमरति, भाग १ गाथा १४२ पृष्ठ ३०० (महेसाणा)। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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