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ने राजा से कहा कि . राजन् ! डरो मत, मेरी ओर से तुम्हें अभय है, पर तुम भी अभयदाता बनो। इस अनित्य जीवलोक में तुम क्यों हिंसा में आसक्त बन रहे हो ? मुनि ने राजा को जीवन की नश्वरता, ज्ञाति सम्बन्धों की असारता एवं कर्म-फलों की निश्चितता का बोध भी कराया। गर्दभालि मुनि के इस उद्बोधन से विरक्त होकर राजा संजय साधु बन गया और साधना में लीन हो गया।
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एक दिन संजयमुनि का एक क्षत्रियमुनि के साथ वार्तालाप होता है। जिसमें दोनों मुनियों के बीच हुई संक्षिप्त दार्शनिक चर्चा में भगवान महावीर के युग में प्रचलित दर्शन की चार प्रमुख धाराओं - क्रियावाद, अक्रियावाद, विनयवाद एवं अज्ञानवाद का उल्लेख उपलब्ध होता है।
आगे इसमें भरत, सगर, मघवा सनत्कुमार, शान्तिनाथ ( सोलहवें - तीर्थंकर), कुन्थुनाथ (सत्रहवें तीर्थंकर), अरनाथ (अट्ठारहवें तीर्थंकर), महापद्म, हरिषेण एवं जय आदि दस चक्रवर्ती एवं दशार्ण, करकण्डु, द्विमुख, नमि, नरगति, उदायन, काशीराज, विजय एवं महाबल राजाओं के संयम स्वीकार करने का उल्लेख है।
इस प्रकार यह अध्ययन राजर्षियों की ऐतिहासिक परम्परा को प्रस्तुत करता है। अन्त में इस अध्ययन में अनेकान्तवाद एवं अनाग्रह दृष्टि के विकास की प्रेरणा देकर संयम भावना को पुष्ट किया गया है।
१६. मृगापुत्रीय : प्रस्तुत अध्ययन का नाम समवायांगसूत्र " के अनुसार मियचारिया
मृगचारिका एवं निर्युक्तिकार " के अनुसार मृगचारिका एवं मिगपुत्तिज्जं - मृगापुत्रीय दोनों है। इसमें प्रथम नाम विषय एवं द्वितीय नाम व्यक्ति पर आधारित है । मृगारानी से उत्पन्न पुत्र से सम्बन्धित होने से यह अध्ययन मृगापुत्रीय नाम से विश्रुत है । मृग की तरह स्वतंत्र एवं स्वाश्रित साधुचर्या का वर्णन इसमें होने से यह अध्ययन मृगचारिका कहलाया । इसमें ६८ गाथायें हैं।
सुग्रीव नगर में बलभद्र राजा राज्य करते थे। उनकी रानी मृगावती के पुत्र का नाम बलश्री था, लेकिन उसका लोकप्रसिद्ध नाम मृगापुत्र था ।
७३ 'जीवियं चेव रूवं च विज्जुसंपायचंचलं । जत्य तं मुज्झसी राय, पेच्चत्थं नावबुज्झसे ।।' ७४ समवायांग ३६/१;
७५ उत्तराध्ययननिर्युक्ति गाथा १५, ४०८
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उत्तराध्ययनसूत्र १८/१३ ।
( अंगसुत्ताणि, लाडनूं खण्ड प्रथम पृष्ठ ८८२) । ( नियुक्तिसंग्रह पृष्ठ ३६६, ४०४) ।
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