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________________ श्रमण के दो प्रकार होते हैं – (१) श्रेष्ठश्रमण (२) पापश्रमण। श्रेष्ठ श्रमण वे हैं जो सम्यग् ज्ञान, सम्यग् दर्शन, सम्यक् चारित्र, तप और वीर्य का पालन करने वाले होते हैं एवं जो ज्ञान आदि पंच आचारों का सम्यक प्रकार से पालन नहीं करता है तथा अकरणीय कार्यों को करता है वह पापश्रमण है। पुनश्च जो संयम ग्रहण करने के पश्चात् प्रमत्त, अनाचारी हो जाते हैं, वे पापश्रमण हैं। आगम के अनुसार 'जे सीहत्ताएणिक्खंतो, सियालत्ताए विहरन्ति' अर्थात् जो सिंह की तरह शूरवीरता से संयम को स्वीकार करता है किन्तु श्रृगाल की तरह पालन करता है, वह पाप श्रमण है तथा जो विवेकरहित है, अपना अमूल्य समय संयमसाधना एवं स्वाध्याय में न लगाकर खाने, पीने व सोने में बर्बाद करता है, समय पर प्रतिलेखन, प्रतिक्रमण तथा रत्नाधिक की सेवा-शुश्रूषा आदि नहीं करता है, वह पाप श्रमण है। इस अध्ययन से हमें यह बोध होता है कि साधना की ऊंचाइयों को प्राप्त करना तो कठिन है ही, किन्तु उन ऊंचाइयों पर पहुंचकर वहां स्थिर रहना, पतित नहीं होना कठिनतम है। जो साधक कठिन परिस्थितियों में विचलित नहीं होता है, वही श्रेष्ठ है। श्रमण का अर्थ केवल वेश परिवर्तन करना नहीं, जीवन परिवर्तन करना है और जो अपनी वृत्तियों में परिवर्तन कर लेता है, उन्हें भोग मार्ग से त्याग मार्ग की ओर मोड़ देता है, वही श्रमण है और जो पुनः भोग मार्ग की ओर आकृष्ट हो जाता है वही पापश्रमण है। - इस प्रकार प्रस्तुत अध्ययन में (१) पापश्रमण (दोषपूर्ण जीवन जीने वाले मुनि) का स्वरूप; (२) संयमजीवन से दूर करने वाले दोषों एवं (३) उन दोषों को दूर करने वाले उपायों पर प्रकाश डाला गया है। १८. संजयीय : प्रस्तुत अध्ययन का नाम 'संजइज्ज' है। इसमें ५४ गाथायें हैं। इसमें राजा संजय के गृहस्थ जीवन की एक घटना के पश्चात् शिकारी जीवन एवं तत्पश्चात् उसके संयमी जीवन की स्थिति का दिग्दर्शन कराया गया है। यह एक शिकारी राजा के हृदय परिवर्तन एवं उनके शुद्ध संयम पालन की कथा है। कापिल्य नगर का राजा 'संजय' था। वह एक बार शिकार खेलने केशर उद्यान में गया। वहां उसने हिरणों का शिकार किया। इतने में राजा की दृष्टि वहां ध्यानस्थ खड़े गर्दभालि मुनि पर पड़ी। राजा भयभीत हो गया। वह मुनि के पास गया और हाथ जोड़कर उनसे क्षमा मांगी। ध्यान पूर्ण होने पर मुनि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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