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________________ वाले तर्कों ने पिता को निरूत्तर कर दिया 68 इसपर पिता ने उन्हें संयम ग्रहण करने की अनुमति ही नहीं दी अपितु उनके साथ अपनी पत्नी सहित स्वयं भी दीक्षा ग्रहण करने के लिए तत्पर हो गये। इधर जब राजा को ज्ञात हुआ कि राजपुरोहित सपरिवार दीक्षा लेने जा रहे हैं तो राजा ने उनकी विपुल सम्पदा को अपने राजकोष में मंगवाने का निर्णय लिया; किन्तु रानी कमलावती ने पुरोहित द्वारा त्यक्त सम्पदा को अधिगृहीत करना वमित भोजन को ग्रहण करने के समान बताकर राजा को उसके कर्त्तव्य का बोध कराया साथ ही उसने संसार के काम भोगों की नश्वरता और दुःखरूपता का चित्रण भी प्रस्तुत किया। फलतः पुरोहित दम्पति और उनके दोनों पुत्रों के साथ राजा रानी भी दीक्षित होने के लिए तत्पर हो गए। इस प्रकार प्रस्तुत अध्ययन मुख्य रूप से वैराग्यपूर्ण उपदेशों से परिपूर्ण है। इसमें वैदिकपरम्परा की उस अवधारणा की समीक्षा भी की गई है जिसके अनुसार यह माना जाता है कि पुत्र के अभाव में सद्गति नहीं होती । बौद्ध साहित्य के हस्तिपाल जातक में भी यह कथा कुछ परिवर्तित रूप में उपलब्ध होती है। इस अध्ययन पर प्रो. के. आर. नार्मन ने एक शोधपरक आलेख प्रस्तुत किया है । " १५. सभिक्षुक : इस अध्ययन में भिक्षु के लक्षणों का निरूपण किया गया है। अतः इसका नाम सभिक्षुक है। इस अध्ययन में १६ गाथायें हैं। इसमें संवेग, निर्वेद, विनय, विवेक, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, क्षमा, शान्ति, सरलता, संयम, निर्लोभता, निर्भयता, परीषह विजय आदि भिक्षु के गुणों का वर्णन किया गया है। आगे इसमें कहा गया है कि भिक्षु वही होता है जो अहिंसक एवं संयमी जीवन जीता है तथा भिक्षाचर्या से अपना निर्वाह करता है। भिक्षु अकेला होता है। उसका न कोई मित्र होता है न कोई शत्रु । वह सभी सम्बन्धों से विमुक्त होता है। वह जितेन्द्रिय होता है और अपनी आध्यात्मिक साधना से प्राप्त शक्ति का उपयोग बाह्य कीर्ति - प्रसिद्धि के लिए नहीं करता है । " ६८ (क) ' मच्चुणा ऽन्भोहओ लोगो, जराए परिवारिओ ।' (ख) 'जा जा वच्चइ रयणी, न सा पडिनियत्तई । ६३ अहम्मं च कुणमाणस्स, संफला जन्ति राइओ ।।' (ग) जाया य पुत्ता न हवंति ताणं ६६ हस्तिपाल जातक ५०६ 90 Uttarajjhayana Sutta XIV Usuyarijjam Jain Education International ७१ 'असिष्पजीवी अगिहे अमित्ते, जिइन्दिए सव्वओ विष्पमुक्के । अणुक्कसाई लहुअप्पभक्खी, चेच्चा गिहं एगचरे स भिक्खु ।।' उत्तराध्ययनसूत्र १४ / २३ । वही १४ / २४ । वही १४ । १३ - उद्धृत् उत्तज्झयणाणि पृष्ठ ३२८ युवाचार्य महाप्रज्ञ । - - Aspects of Jainology Vol. III Page 16 (English Section) - K.R. Norman उत्तराध्ययनसूत्र १५ / १६ । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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