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इस प्रकार इस अध्ययन का निष्कर्ष यह है कि बाह्य शुद्धि की अपेक्षा आन्तरिक शुद्धि ही श्रेष्ठ है । जाति या कुल की कोई महत्ता नहीं है, महत्ता है व्यक्ति के चारित्र बल की ।
१३. चित्र - संभूतीय : इस 'चित्रसंभूतीय' अध्ययन में चित्र एवं सम्भूत दोनों भ्राताओं के पारस्परिक संवाद का संकलन है। इसमें ३५ गाथायें हैं।
ब्रह्मदत्त की उत्पत्ति से अध्ययन का प्रारम्भ होता है। चित्र और सम्भूत पूर्व भव में भाई-भाई थे। चित्र का जीव पुरिमताल नगर के सेठ का पुत्र हुआ और ' मुनि बना। सम्भूत का जीव ब्रह्म राजा का पुत्र ब्रह्मदत्त बना। छठी व सातवीं गाथा में इनके पूर्व जन्मों का उल्लेख है। इनके पूर्व के पांच भवों का विस्तृत विवेचन नेमिचन्द्राचार्य कृत उत्तराध्ययनसूत्र की टीका में मिलता है।
प्रस्तुत अध्ययन में चित्र मुनि ब्रह्मदत्त को संसार की असारता का बोध कराकर संयम ग्रहण करने की प्रेरणा देते हैं । परन्तु भोगों में अत्यन्त आसक्त ब्रह्मदत्त संयम के लिए तैयार नहीं होता है। तब मुनि गृहस्थधर्म पालन करने की प्रेरणा देते हैं, किन्तु ब्रह्मदत्त पर उसका भी कोई प्रभाव नहीं होता है। तब मुनि सोचते हैं कि मूर्खों को उपदेश देना व्यर्थ है।
अन्तिम गाथा में यह बताया गया है कि आत्म साधना के द्वारा चित्र मुनि मुक्ति को प्राप्त होते हैं एवं भोगासक्ति के कारण ब्रह्मदत्त सातवीं नरक में • उत्पन्न होता है।
१४. इषुकारीय: प्रस्तुत अध्ययन का नाम इषुकारीय है। इसमें वर्णित नगर एवं राजा दोनों का नाम इषुकार है। अतः इस अध्ययन का नाम इषुकार रखा गया है। इसमें ५३ गाथायें हैं।
इस अध्ययन के आरम्भ में बताया गया कि राजपुरोहित के दो पुत्रों को निर्ग्रन्थ मुनि के दर्शन से पूर्वजन्म का स्मरण हो आया इससे उन्हें वैराग्य उत्पन्न हो गया और उन्होने संयम लेने का निर्णय कर लिया । इस हेतु अपने पिता से अनुमति मांगी पर पिता ने पुत्रों को सन्यासमार्ग से विचलित करने के लिए अनेक प्रकार से समझाया, किन्तु पुत्रों के संसार की नश्वरता को सिद्ध करने
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