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वह शोर राजा के लिये असहनीय हो गया । अतः रानियों ने सौभाग्य सूचक एक एक कंकण को छोड़कर शेष सभी उतार दिये। आवाज बंद हो गयी। अकेला कंकण आवाज कैसे करता?
इस घटना ने नमिराजा को चिन्तन की गहराईयों में उतार दिया कि जहां अनेक हैं वहां संघर्ष है, दुःख है, पीड़ा है। जहां एक है वहां पूर्ण शान्ति है। धन, परिवार की भीड़ में सुख नहीं, सुख तो आत्मभाव में संयम में है और राजा ने संयम लेने का संकल्प कर लिया। अकस्मात् नमिराजा को प्रव्रजित होते देख इन्द्र उनकी परीक्षा के लिये ब्राह्मण का रूप बनाकर आया और अनेक प्रश्नों से नमि राजा को विचलित करने का प्रयास करने लगा। इस प्रकार प्रस्तुत अध्ययन नमि राजर्षि एवं इन्द्र के बीच हुए संवाद का सुन्दर संकलन है।
_इन्द्र नमि राजर्षि को राज्योचित कर्म की प्रेरणा देता है। प्रत्युत्तर में राजा आत्मधर्म की बात करते हुए संसार की असारता एवं भेद विज्ञान की चर्चा करते हैं। इन्द्र कहते हैं कि राजन् आप प्राप्त सुख का त्यागकर अप्राप्त सुख के लिये प्रयास कर रहे हैं, यह कैसे उचित है ? राजा कहते हैं – विषयों में सुख नहीं है, कामभोग शल्य है, विष है एवं दुर्गतिदायक है। पुनश्च इन्द्र कहता है आप अनेक राजाओं को वश में करके फिर दीक्षा लेना। इसका उत्तर देते हुए नमिराजा कहते हैं- आत्मविजय ही परमविजय है। दस लाख योद्धाओं को जीतने की अपेक्षा स्वयं की आत्मा को जीतना श्रेयस्कर है क्योंकि एक आत्मा को जीत लेने पर ये सब जीत लिये जाते हैं।
इन्द्र ने जब राजा को अपराधियों को दण्ड देकर नगर की सुरक्षा करने की प्रेरणा दी तब राजा ने कहा – प्रामाणिकतापूर्वक न्याय कर पाना कठिन है अनेक बार अपराधी मुक्त हो जाते हैं और निरपराधी पकड़े जाते हैं ।
__इसी प्रकार प्रस्तुत अध्ययन में नमिराजर्षि ने आध्यात्मिक दृष्टि से अनेक तथ्यों का प्रतिपादन किया है । जैसे- दान से तप-संयम श्रेष्ठ है। क्योंकि दान में जो भी दिया जाता है वह 'पर' है और 'पर' का 'पर' को दान करने में क्य विशेषता है, यह कथन कि इस अपेक्षा से कहा गया कि सन्यास आश्रम सर्वश्रेष आश्रम है। सन्तोष त्याग में है भोग में नहीं।
६४ 'जो सहस्सं सहस्साणं, संगामे दुज्जए जिणे ।
एगं जिणेज्ज अप्पाणं, एस से परमो जओ ।' 'पंचिदियाणि कोहं, माणं मायं तहेव लोहं च । दुज्जयं चेव अप्पाणं, सबं अप्पे जिए जियं ।'
- उसराध्ययनसूत्र ६/३४ एवं ३६ ।
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