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________________ उसे उपहार देने की भावना से आधी रात को धनसेठ के घर रवाना हो गया। वह धनसेठ प्रातः काल सर्वप्रथम बधाई देने वाले को दो माशा सोना देता था। लेकिन आधी रात को नगरी में घूमते हुए कपिल को जब रक्षकों ने देखा तो चोर समझकर उसे पकड़ लिया और राजा के समक्ष उपस्थित किया। राजा ने कपिल से अर्धरात्रि में भ्रमण का कारण पूछा। कपिल ने सरल एवं स्पष्ट रूप से सारी बात बता दी। राजा कपिल की स्पष्टवादिता से प्रभावित हो उठा और बोला कि वत्स मैं तुम पर प्रसन्न हूं। मांगों तुम्हें क्या चाहिये ? कपिल ने कहा कि सोचकर मांगूगा और वह सोचने लगा। क्या मांगू ? दो माशा सोने से क्या होगा ? सौ...हजार...लाख...करोड माशा मांग लूं । ऐसा सोचते-सोचते लोभ की पराकाष्ठा यहां तक पहुंच गई कि कपिल का मन पूरा राज्य मांगने को तैयार हो गया फिर भी प्राप्ति की चाह बनी रही। अन्ततोगत्वा उसके चिन्तन की दिशा बदल गयी। मन में विरक्ति आ गई। उसने सोचा कि लाभ के साथ-साथ लोभ बढ़ता जाता है और लोभ से उद्विग्नता बढ़ती है। सच्ची शान्ति तो सन्तोष और निर्लोभ वृत्ति में है। यह सोचकर कपिल ने संयम स्वीकार कर लिया। मुनि बनने के पश्चात् उन्होंने ५०० चोरों को जो प्रतिबोध दिया उस उपदेश का संकलन इस अध्ययन में किया गया है। - प्रस्तुत अध्ययन का मूल प्रतिपाद्य है कि वास्तविक सुख इच्छाओं की : पूर्ति में नहीं वरन् इच्छाओं की निवृत्ति में है। अतः व्यक्ति को लोभ पर विजय प्राप्त करनी चाहिये। ६. नमिप्रव्रज्या : नमिराजा की प्रव्रज्या का विवरण होने से इस अध्ययन का नाम 'नमिप्रव्रज्या' रखा गया है। इस अध्ययन में ६२ गाथायें हैं। यहां ये नमिराजा कौन थे? इस पर संक्षेप में विचार करना प्रसंगोचित है। ...... मालवदेश के सुदर्शनपुर नगर में मणिरथ राजा राज्य करता था। .. उसका छोटा भाई युगबाहु था। मदनरेखा युगबाहु की पत्नी थी। मदनरेखा पर आसक्त हो जाने के कारण मणिरथ ने युगबाहु को मार डाला। मदनरेखा उस समय गर्भवती थी, उसने जंगल में एक पुत्र को जन्म दिया। उस शिशु को मिथिला के राजा पद्मरथ ले गये और उसका नाम नमि रख दिया। कुछ वर्षों के बाद राजा - पदमरथ ने नमि को राजा बना दिया और स्वयं ने दीक्षा ले ली। एक बार राजा नमि दाहज्वर से पीड़ित हो गये। दाहज्वर के उपचार के लिये चन्दन के लेप की आवश्यकता हुई। रानियां स्वयं चन्दन घिसने लगीं। चन्दन घिसते समय हाथों के कंकणों के परस्पर टकराने से तीव्र आवाज होने लगी। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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