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________________ की है उसके अनुसार यह पार्श्वनाथ का विशेषण भी हो सकता है, किन्तु जिस प्रकार पुरूषादानीय पार्श्व का विशेषण है; उस प्रकार 'वैशालिक' महावीर का विशेषण है। संभव है कि यह गाथा दो अलग गाथाओं के चरणों को जोड कर कल्पित की गई हो या मूल गाथा में 'कौसलीय' शब्द रहा हो जो बाद में किसी प्रकार बदलकर वैसालीय हो गया हो। ८५ ७. उरभ्रीय : उत्तराध्ययनसूत्र के सातवें अध्ययन का नाम समवायांग एवं उत्तराध्ययननिर्युक्ति में उरभ्रीय / औरभ्रीय है, किन्तु अनुयोगद्वार में इसका 'एलइज्ज' नाम प्राप्त होता है,± जिसका कारण प्रस्तुत अध्ययन की प्रथम गाथा में प्रयुक्त 'एलयं' शब्द होना चाहिए। वस्तुतः उरभ्र एवं एलक दोनों ही शब्द बकरे के पर्यायवाची हैं। इसमें ३० गाथायें हैं। इस अध्ययन में दृष्टान्तों के माध्यम से विषय का स्पष्टीकरण किया गया है - सर्वप्रथम रसलोलुपता महादुःखदायी है, इसका प्रतिपादन करते हुए मेमने के दृष्टान्त द्वारा इसमें यह बताया गया है कि जो ऐन्द्रिक विषय सुखों में आसक्त होकर हिंसा करते हैं, झूठ बोलते हैं, लूटपाट एवं चोरी करते हैं, स्त्रियों में आसक्त रहते हैं, मांस मदिरा का सेवन करते हैं, दूसरों का शोषण करते हैं महारम्भ एवं महापरिग्रह में रत रहते हैं; वे जीव जैसे मेमना मेहमान के लिये अपेक्षित होता है अर्थात् मेहमान के आने पर वह मरणांतक कष्ट प्राप्त करता है, वैसे ही पूर्वोक्त पापकर्मों में लिप्त जीव नरक में भयंकर कष्टों को प्राप्त करते हैं । आगे चलकर इसमें दो दृष्टान्तों के माध्यम से अल्पकालीन सुख के पीछे शाश्वत सुख को नहीं खोने की शिक्षा दी गई है । एक व्यक्ति ने बड़ी मेहनत से एक हजार काषार्पण एकत्रित किये । उन्हें लेकर वह अपने गांव लौट रहा था। उसने रास्ते में कहीं कुछ सौदा किया और आगे चल दिया। कुछ रास्ता तय करने पर उसने जब हिसाब जोड़ा तो ज्ञात हुआ कि व्यापारी ने एक कांकिणी कम दी है। वह अपने हजार काषार्पण वहीं जंगल में छुपाकर कांकिणी लेने के लिये पुनः वापस गया। कांकिणी लेकर वह वापिस वहां आया जहां उसने एक हजार काषार्पण छुपाकर रखे थे। लेकिन वहां काषार्पण नहीं मिले क्योंकि उन्हें रखते समय किसी ने देख लिया था। वह उन्हें पीछे से चुराकर ले गया। इस प्रकार वह एक कांकिणी के पीछे हजार काषार्पण गवां बैठा । ६१ उत्तराध्ययनचूर्णि पत्र १५७ । ६२ अनुयोगद्वारसूत्र ३२२, Jain Education International नवसुत्ताणि, लाडनूं, पृष्ठ ३५० । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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