________________
ग्रन्थ का मूल अर्थ गांठ है। इसके दो प्रकार हैं -
(१) स्थूलग्रन्थी और (२) सूक्ष्मग्रन्थी । वस्तुओं का संग्रह करना स्थूलग्रन्थी है एवं उनके प्रति आसक्ति / मूर्छा का होना सूक्ष्मग्रन्थी है। इस अध्ययन में श्रमण को इन दोनों ग्रन्थियों का परित्याग कर साधना पथ पर अग्रसर होने की प्रेरणा दी है।
इसमें अविद्या / अज्ञान को दुःख का कारण बतलाया है, साथ ही यह भी बताया है कि मात्र शाब्दिक ज्ञान या सैद्धान्तिक ज्ञान दुःख मुक्ति का कारण नहीं बन सकता, क्योंकि जो ज्ञान आचरण या व्यवहार में नहीं उतरता है, वह व्यर्थ है, भारभूत है। इसी अध्ययन में सत्य की खोज स्वयं के द्वारा करने एवं प्राणीमात्र के साथ मैत्रीभाव रखने की प्रेरणा दी गई है। परिजन एवं धन-सम्पत्ति आदि साधन जीव की रक्षा करने में असमर्थ हैं। इसका सुन्दर चित्रण भी प्रस्तुत किया गया है। :
इस अध्ययन की अन्तिम गाथा का पाठान्तर उत्तराध्ययनचूर्णि एवं उसकी बृहवृत्तिटीका में उपलब्ध होता है । यथा- .
‘एवं से उदाहु अरिहा, पासे पुरिसादाणीए।
भगवं वेसालिए , बुद्धे परिणिव्वुए ।।
टीकाकार ने उपर्युक्त गाथा में प्रयुक्त पुरूषादाणीय. पास एवं शब्द का सम्बन्ध भगवान महावीर से जोड़ा है। वे लिखते हैं "समस्तभावान् केवलालोकेनावलोक्य इति पश्यः' अर्थात् जो केवलज्ञान के आलोक में समस्त जगत को देखता है वह 'पास' है तथा पुरूषादानीय का अर्थ स्पष्ट करते हुए लिखा है कि तीर्थकर प्रायः 'पुरूष होते हैं तथा 'आदानीय' का अर्थ ग्रहण करने योग्य ज्ञानादि गुण हैं। इस प्रकार जो पुरूष ज्ञानादि गुण को ग्रहण करे वह पुरूषादानीय है। इस अपेक्षा से ये दोनों शब्द भगवान महावीर के विशेषण मान लिये गये हैं। युवाचार्य महाप्रज्ञ के अनुसार यह गाथा सम्भवतः भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा की है क्योंकि पुरूषादानीय भगवान पार्श्वनाथ का सुप्रसिद्ध विशेषण है। अतः उसके साथ प्रयुक्त 'पास' शब्द का अर्थ पार्श्व ही होना चाहिये। यद्यपि पाठान्तर की गाथा में 'वेसालिए' विशेषण का अधिक सम्बन्ध भगवान महावीर से है पर चूर्णिकार ने 'वेसालिए' शब्द की जो व्याख्या
५६ (क) उत्तराध्ययनचूर्णि पत्र १५७ ।
(ख) उत्तराध्ययनसूत्र टीका पत्र २७० । ६० उत्तरज्मयणाणि, द्वितीय भाग पृष्ठ १७३
- शान्त्याचार्य। - युवाचार्य महाप्रज्ञ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org