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जीवन यात्रा के दो छोर हैं - (१) जन्म एवं (२) मृत्यु । जीवन जीना एक कला है, किन्तु मरना तो उससे भी बड़ी कला है। जो मृत्यु की कला नहीं जानते हैं उन्हें इस संसार चक्र में बार-बार जन्म-मरण करना पड़ता है। अतः प्रस्तुत अध्ययन में जीवों के दोनों प्रकार के मरण अकाममरण एवं सकाममरण के स्वरूप और उनके परिणामों का विवेचन किया गया है।
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अकाममरण विवेकरहित होता है तथा सकाममरण विवेकपूर्वक होता है। अकाममरण में विषय-वासना या कषाय की प्रबलता होती है, जबकि सकाममरण में विषय वासना एवं कषाय का अभाव होता है।
` प्रस्तुत अध्ययन में सकाममरण के अधिकारी की चर्चा करते हुए कहा गया है कि व्यक्ति चाहे साधु वेशधारी हो अथवा जटाधारी, वल्कलधारी, गेरूए वस्त्रधारी, नग्न, मुण्डित एवं भिक्षाजीवी हो इससे उनकी मृत्यु नहीं सुधर सकती । क्योंकि मात्र वेश एवं क्रियाकाण्ड ही दुर्गति के निवारक नहीं हैं वरन् जो व्रतधारी हैं, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र की आराधना में रत हैं चाहे वे गृहस्थ हों या साधु, सार्थकमरण / समाधिमरण को प्राप्त होते हैं |
इस अध्ययन के उपसंहार में कहा गया है कि साधक सकाममरण एवं अकाममरण के स्वरूप एवं परिणाम को जानकर सकाममरण की अपेक्षा करना चाहिये। संयमी, ज्ञानी एवं समाधिस्थ का सकाममरण होता है और असंयमी, आत्मघाती एवं अज्ञानी का अकाममरण होता है । प्रस्तुत अध्ययन की अन्तिम गाथा में समाधिमरण के तीन प्रकार बताये गये हैं- (१) भक्तपरिज्ञा (२) इंगिनी और (३) पादोपगमन ।
प्रस्तुत अध्ययन में जिस समाधिमरण की चर्चा की गई है वह आत्महत्या नहीं है। इसका स्पष्टीकरण शोधप्रबन्ध के आठवें अध्याय में द्रष्टव्य है।
६. क्षुल्लक निर्ग्रन्धीय: प्रस्तुत अध्ययन का नाम क्षुल्लक निर्ग्रन्थीय है। इसमें १८ गाथायें हैं। 'निर्ग्रन्थ' शब्द जैनदर्शन का प्राचीन शब्द है। प्राचीन समय में जैनधर्म निर्ग्रन्थधर्म के नाम से प्रचलित था।
५५ उत्तराध्ययनसूत्र ५/२१ एवं २८ ।
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