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इस अध्ययन में प्रमाद से निवृत्त होने की और अप्रमत्त रहने की सोदाहरण प्रेरणा दी गई है। इसमें यह बताया गया है कि प्रमाद क्या है एवं उससे बचने के उपाय क्या हैं ? इसके साथ ही इसमें अप्रमत्तता की साधना के साधक तत्त्वों का भी सुन्दर निरूपण किया गया है।
पचा गया हा प्रस्तुत अध्ययन जीवन जीने का सम्यक् दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है और जीवन एवं जगत के सम्बन्ध में मिथ्या मान्यताओं का निरसन करता है।
इसमें बताया गया है कि जीवन असंस्कृत है अर्थात् इसे सांधा/जोड़ा नहीं जा सकता है। दूसरे शब्दों में कहा जाय तो इसे छोटा-बड़ा नहीं किया जा सकता है, क्योंकि आयुष्य रूपी डोर टूट जाने पर उसे पुनः जोड़ा नहीं जा सकता । अतः किंचित् भी प्रमाद नहीं करना चाहिये ।2
कुछ लोगों की मान्यता है कि धर्म करने का समय वृद्धावस्था है । इसके निरसन में कहा गया है कि धर्म करने के लिए सब काल उपयुक्त है और जीवन भर अप्रमत्त/सजग रहने पर ही अन्तिम समय में धर्म का पालन करना सम्भव है।
इसी प्रकार धन को शस्णभूत मानने वालों के लिये कहा है कि धन त्राण नहीं दे सकता है अर्थात् धन दुःखों से मुक्ति नहीं दिला सकता। व्यक्ति को अपने द्वारा अर्जित कमों का फल स्वयं ही भोगना पड़ता है। अन्य व्यक्ति उन कों के फल में सहभागी नहीं होते हैं।
अन्त में यह बताया गया है कि छन्द अर्थात् इच्छाओं के निरोध में ही मुक्ति है । अतः प्रलोभन की परिस्थिति में व्यक्ति को सदा जागृत रहना चाहिये। इस प्रकार इसका मूल प्रतिपाद्य आत्म-सजगता की अपरिहार्यता एवं जीवन के प्रति सन्तुलित एवं स्वस्थ दृष्टिकोण अपनाना है। ५. अकाममरणीय : प्रस्तुत अध्ययन का प्रचलित नाम अकाममरणीय है तथा नियुक्तिकार के अनुसार इसका नाम 'मरणविभत्तीई'/मरणविभक्ति है।"
५२ 'असंखयं जीविय मा पमापए, जरोवणीयस्स हु नत्यि ताणं । ___ एवं वियाणाहि जणे पमत्ते, कणु विहिंसा अजया गहिति ॥१॥' ५३ 'वित्तेण ताणं न लभे पमत्ते' ५४ 'कम्मस्स ते तस्स उ वेयकाले, न बंधवा बंधवय उवेन्ति ।' ५५ 'छंदं निरोहेण उदेइ मोक्ख' . ५६ ‘मन्दा य फासा बहु-लोहणिज्जा, तहप्पगारेसु मणं न कुज्जा' ५७ उत्तराध्ययननियुक्ति गाथा २०६
- उत्तराध्ययनसूत्र ४/१। - उत्तराध्ययनसूत्र ४/५ । - वही ४/४। - वही ४/८। - वही ४/१२ । - (नियुक्तिसंग्रह पृष्ठ ३८४) ।
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