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है । इसमें कई विघ्न उपस्थित हो जाते हैं । उत्तराध्ययनसूत्र नियुक्तिकार ने धर्म श्रवण में आने वाले निम्न तेरह विघ्नों का वर्णन किया है- आलस्य, मोह, अवज्ञा, अहं, क्रोध, प्रमाद, कृपणता, भय, शोक, अज्ञान, व्याक्षेप, कुतूहल और रमण।
(३) श्रद्धा - इस तृतीय अंग की दुर्लभता का निरूपण करते हुए प्रस्तुत अध्ययन में कहा गया है - 'आहच्च सवणं लद्धं सद्धा परम दुल्लहा' अर्थात् धर्म श्रवण करके भी उस पर श्रद्धा होना परम दुर्लभ है। श्रद्धा आध्यात्मिक जीवन की विकास यात्रा का मूल आधार है। बहुत कुछ सुन लेने या जान लेने पर भी तत्त्व श्रद्धा का होना अति दुर्लभ होता है।
(४) संयम में पुरूषार्थ - जिनवचन के प्रति श्रद्धा हो जाने पर भी तदनुरूप आचरण परम दुर्लभ है । सभी व्यक्ति उसमें पराक्रम या पुरूषार्थ नहीं कर पाते हैं। जो जाना है, जिस पर श्रद्धा है- उसके अनुसार आचरण करना परम दुर्लभातिदुर्लभ है।
इस प्रकार प्रस्तुत अध्ययन में चार अंगों की दुर्लभता का चित्रण करके कर्मों से मुक्त होने की प्रेरणा दी गई है। साथ ही इसमें धर्म के अधिकारी कौन है इसका निरूपण करते हुए बताया है कि धर्म का उद्भव स्थान सरल एवं शुद्ध हृदय है। इस प्रकार सरलता / सहजता मोक्ष प्राप्ति की प्रथम अनिवार्यता है। इस अध्ययन की अन्तिम गाथाओं में बताया है कि इन चारों अंगों को प्राप्त कर जीव देवगति में जाता है और वहां से आयुष्य पूर्ण कर दस अंगों वाली भोग सामग्री युक्त • मनुष्य भव को प्राप्त होता है और पुनः इन चार अंगों के माध्यम से शेष कर्मों को · निर्जरित कर मुक्ति का वरण कर लेता है। ४. असंस्कृत : उत्तराध्ययनसूत्र के चतुर्थ अध्ययन का नाम समवायांगसूत्र के अनुसार 'असंस्कृत एवं उत्तराध्ययननियुक्ति' के अनुसार 'असंस्कृत' तथा 'प्रमादाप्रमांद' हैं। समवायांग का नामकरण इसकी प्रथम गाथा के प्रथम शब्द पर आधारित है तथा नियुक्तिकार के द्वारा प्रदत्त प्रमादाप्रमाद नाम इस अध्ययन की विषयवस्तु है।
VE 'आलस्स मोहऽवन्ना, थंभा कोहा पमाय किविणत्ता ।
भय सोगा अन्नाणां, वक्खेव कुऊहला रमाणा ।।' १० समवायांग ३६/१। " उत्तराध्ययननियुक्ति गाथा १३, १८१
- उत्तराध्ययननियुक्ति गाथा १६०, नियुक्तिसंग्रह पृष्ठ ३८० । ... - अंगसुत्ताणि, लाडनूं, खण्ड प्रथम पृष्ठ ८८२ । । - नियुक्तिसंग्रह पृष्ठ ३६६, ३८२ । ..
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