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(E) चर्या (१०) निषद्या (११) शय्या (१२) आक्रोश (१३) वध (१४) याचना (१५) अलाभ (१६) रोग । (१७) तृणस्पर्श (१८) जल्ल (मल) (१६) सत्कार-पुरस्कार (२०) प्रज्ञा (२१) अज्ञान (२२) दर्शन
इस अध्ययन की विशेषता यह है कि इसमें बड़े मनोवैज्ञानिक ढंग से परीषहों पर विजय प्राप्त करने के उपाय बतलाये गये हैं। इन परीषहों की विस्तृत चर्चा प्रस्तुत ग्रन्थ के दसवें अध्याय 'उत्तराध्ययनसूत्र में प्रतिपादित श्रमणाचार' में द्रष्टव्य है। ३. चतुरंगीय : प्रस्तुत अध्ययन में – (१) मनुष्यत्व; (२) धर्मश्रवण; (३) श्रद्धा और (४) संयम में पुरूषार्थ - इन चार अंगों की दुर्लभता का प्रतिपादन किया गया है। इस आधार पर इसका नाम चतुरंगीय रखा गया है। पूर्वोक्त चारों अंगों में से किसी एक अंग की प्राप्ति भी जीवन में दुर्लभ है तो चारों अंगों की एक साथ प्राप्ति हो जाना तो अति दुर्लभ है। इसी दुर्लभता का दिग्दर्शन प्रस्तुत अध्ययन में किया गया है; जो संक्षेप में इस प्रकार है -
(१) मनुष्यत्व - जैनदर्शन के अनुसार परमात्मा बनने की योग्यता मात्र मनुष्य में है । तिर्यंच जगत में यदि कहीं आंशिक सुसंस्कार उपलब्ध होते हैं । वे उनके पूर्वजीवन के सुसंस्कारों का ही सुपरिणाम है । देव जीवन अतिसुख के कारण भोग विलास में इतना लिप्त होता है कि वहां तप-त्याग एवं विरक्ति की संभावना नहींवत् होती है । तथा दुःख वेदना एवं यातना से प्रतिपल पीड़ित होने के कारण नारक जीवों में धर्माराधना सर्वथा असंभव है । अतः एक मात्र मनुष्य जीवन ही ऐसा जीवन है जहां आध्यात्मिक विकास संभव हो सकता है । यहां मनुष्य जीवन की प्राप्ति से अर्थ है मानवता सम्पन्न मनुष्य जीवन पाना । मनुष्यत्व के लिये आत्मसजगता, विवेकशीलता एंव संयम इन तीन गुणों का होना आवश्यक है, जिन्हें जैन शब्दावली में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र कहा जाता है ।
(२) श्रुति - दूसरा दुर्लभ अंग श्रुति है। श्रुति का अर्थ है सद्धर्म श्रवण। सद्धर्म के श्रवण से ही मनुष्य को हेय, ज्ञेय एवं उपादेय का बोध होता है। मनुष्य शरीर प्राप्त हो जाने पर भी श्रुति अर्थात् सद्धर्म का श्रवण अति दुर्लभ है। दुर्लभ मनुष्य जीवन प्राप्त हो जाने पर भी धर्म सुनने का अवसर मिलना महा दुर्लभ
४८ 'चत्तारि परमंगाणि, दुल्लहाणीह जंतुणो।
माणुसत्तं सुई सद्धा, संजममि य वीरियं ।।'
- उत्तराध्ययनसूत्र ३/१।
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