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(१) प्राचीन काल में ज्ञान श्रुत परम्परा पर आधारित था। गुरू-शिष्य परम्परा से अध्ययन मौखिक ही होता था। शास्त्र को स्मृति में सुरक्षित रखने में पुनरूक्ति पूर्ण सहायक होती थी । पुनरूक्ति के कारण शास्त्र को स्मृति में रखने में सहायता होती
थी।
(२) पुनरूक्तियां कहीं-कहीं विषय के स्पष्टीकरण में अत्यन्त सहायक होती
हैं
उत्तराध्ययनसूत्र में अनेक स्थलों पर पुनरूक्तियां प्राप्त होती हैं। उनमें से कुछ निम्नलिखित हैं -
___ पच्चीसवें यज्ञीय अध्ययन में 'तं वयं बूमं माहणं' (२५।१६ से २६ व ३४). तथा दसवें 'द्रुमपत्रक' अध्ययन में 'समयं गोयम मा पमायए' यह गाथापद चरण प्रत्येक गाथा में ज्यों का त्यों पुनरूक्त है।
'जे भिक्खु जयई निच्चं से ने अच्छइ मण्डले' यह अर्ध-गाथा : इकतीसवें अध्ययन में पुनरूक्त है। इसी प्रकार -
'एयमट्ट निसामित्ता हेऊकारण- चोडओ। तओ नमि रायरिसिं, देविन्दो इणमब्बवी।।'
यह गाथा नौंवें अध्ययन में नमिराजर्षि एवं इन्द्र के सन्दर्भ में १६ बार प्रयुक्त हुई है। इसी प्रकार मात्र एक पद के. परिवर्तन के साथ ३६वें अध्ययन में अनेक गाथायें पुनरूक्त हैं। सन्दर्भ की भिन्नता के कारण अर्थभेद होने पर भी अनेक गाथाओं में शब्दशः पुनरावृत्ति है। कहीं-कहीं जैसे दूसरे और सोलहवें अध्ययन में एक ही विषय को पहले गद्य रूप में प्रतिपादित कर फिर उसे पद्यरूप में प्रस्तुत किया गया है। किन्तु यह स्मरण रखना चाहिए कि इन सभी पुनरूक्तियों का मूल प्रयोजन विषय को सुविधापूर्ण रूप से स्मृति में बनाये रखना था।
२.७ उत्तराध्ययनसूत्र के विभिन्न अध्ययन एवं उनकी विषय-वस्तु
उत्तराध्ययनसूत्र जैन धर्म दर्शन का प्रतिनिधि ग्रन्थ है; विषय विवेचन की अपेक्षा से यह ग्रन्थ अत्यन्त समृद्ध है। यद्यपि यह एक अध्यात्मप्रधान ग्रन्थ है, फिर भी इसमें प्रसंगानुरूप सामाजिक, सांस्कृतिक, दार्शनिक, राजनैतिक, आर्थिक
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