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________________ ७७ उत्तराध्ययनसूत्र में दार्शनिक एवं सैद्धान्तिक विषयों को कथा एवं संवाद के द्वारा रोचक ढंग से प्रस्तुत किया गया है। इसके नौंवें अध्ययन में इन्द्र एवं नमिराजर्षि के बीच वैराग्यमय संवाद वर्णित है। बारहवें अध्ययन में हरिकेशीमुनि एवं ब्राह्मणों के मध्य हुए संवाद में यज्ञ की आध्यात्मिक व्याख्या प्रस्तुत की गई है। तेरहवें अध्ययन में चित्र एवं सम्भूति का वैराग्योत्पादक वार्तालाप संकलित है। चौदहवें अध्ययन में भृगुपुरोहित एवं उनके पुत्रों तथा पत्नी के मध्य आत्मविषयक संवाद है तथा इसी में इषुकार राजा एवं उनकी पत्नी के मध्य कर्त्तव्य विषय के संवाद का वर्णन है। अठारहवें अध्ययन में संजय राजर्षि एवं क्षत्रिय मुनि की दार्शनिक चर्चा तथा ऐतिहासिक राजर्षि परम्परा का वर्णन है। उन्नीसवें अध्ययन में मृगापुत्र एवं उनके माता-पिता के बीच हुए संवाद में मुनि आचार का सुन्दर प्रतिपादन किया गया है। बीसवें अध्ययन में अनाथी मुनि एवं राजा श्रेणिक का अनाथ-सनाथ विषयक संवाद है। इक्कीसवें अध्ययन में समुद्रपाल मुनि की कथा का उल्लेख है। बाइसवें अध्ययन में राजीमती एवं स्थनेमि का वैराग्यमय आख्यान है। तेइसवें अध्ययन में केशीश्रमण एवं गौतमस्वामी के मध्य हुआ महत्वपूर्ण सिद्धान्त विषयक संवाद है। पच्चीसवें अध्ययन में जयघोष एवं विजयघोष के मध्य हुआ ब्राह्मण संस्कृति विषयक संवाद है तथा सत्ताइसवें अध्ययन में गार्याचार्य की कथा है। इस प्रकार उत्तराध्ययनसूत्र के अनेक अध्ययन कथायें एवं संवाद प्रधान हैं। इसके अतिरिक्त कई अन्तर्कथा-गर्भित गाथायें भी इसमें हैं, जिसके आधार पर टीकाकारों ने विपुल कथा साहित्य का निर्माण किया है। २.६.४ पुनरुक्ति और उसका कारण प्राचीन धर्मग्रन्थों में प्रायः पुनरूक्ति पाई जाती है। ये पुनरूक्तियां केवल पदों या वाक्यों की ही नहीं होती, वरन् कभी-कभी तो आंशिक परिवर्तन के साथ पूरी की पूरी गाथा या परिच्छेद की भी होती है। वेदों और त्रिपिटक में भी पुनरूक्ति का प्रयोग व्यापक रूप से उपलब्ध होता है। वैदिक घनपाठ, जापपाठ आदि में मात्र क्रम परिवर्तन के साथ उन्हीं पदों की पुनरुक्ति होती है। पुनरूक्ति के मुख्यतः दो कारण हो सकते हैं - Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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