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इस प्रकार उत्तराध्ययनसूत्र में और भी अनेक उपमाओं एवं दृष्टान्तों का प्रयोग किया गया है पर विस्तारभय से हम उनकी चर्चा यहां करना नहीं चाहते हैं।
२.६.२ प्रतीकात्मक रूपक
उत्तराध्ययनसूत्र में प्रतीकात्मक रूपकों के द्वारा भी आध्यात्मिक व्याख्यायें प्रस्तुत की गई हैं। जिनमें से कुछ को उदाहरणार्थ प्रस्तुत किया जा रहा है -
इसके नौंवें अध्ययन में श्रद्धा को नगर; तप - संयम को अर्गला; क्षमा को प्राकार (परकोटा); पराक्रम को धनुष; इर्यापथ को प्रत्यंचा तथा धृति को उसकी मूठ का प्रतीक बतलाया गया है।
बारहवें हरिकेशीय अध्ययन में तप को ज्योति; जीव को ज्योतिस्थान; मन, वचन और काया (योग) को करछी; शरीर को कण्डे; कर्म को ईंधन तथा संयम की प्रवृत्ति को शान्तिपाठ का प्रतीक बतलाया गया है।45
तेईसवें अध्ययन में कहा गया है कि कषाय अग्नि है तथा श्रुत, शील एवं तप जल है। साथ ही धर्म को द्वीप, गति एवं. उत्तम शरण बताया गया
है।"
इस प्रकार इसमें अन्य अनेक प्रतीकात्मक रूपक प्रस्तुत किये गये हैं, किन्तु हमारा शोध विषय दार्शनिक है इसलिये यहां उन सभी की चर्चा करना अप्रासंगिक होगा।
२.६.३ कथा एवं संवाद
- उत्तराध्ययनसूत्र ६/२०।
४४ 'सद्धं नगरं किच्या, तव संवरमग्गलं ।
खति निउणपागारं, तिगुत्तं दुप्पधंसयं ।' ४५ 'तवो जोई जीवो जोइठाणं, जोगा सुया सरीरं कारिसंग। ___ कम्म एहा संजमजोगसंती, होम हुणामी इसिणं पसत्यं ।।' ४६ 'कसाया अग्गिणो वुत्ता, सुयसीलतवो जलं ।
सुयधाराभिह्या संता, भिन्ना हुन डहति मे ।।' ४७ 'धम्मो दीवो पइटा य, गई सरणमुत्तमं ।'
- वही १२/४४।
- वही २३/५३ । - वही २३/६८ ।
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