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________________ ७४ परिलक्षित होता है। इस प्रकार आगमों का सम्पादन विभिन्न कालों एवं देशों में होने के कारण भी आगमों की भाषा में परिवर्तन हुआ। उपर्युक्त सभी कारण यद्यपि उत्तराध्ययनसूत्र के भाषा परिवर्तन को समझने में सहायक हैं फिर भी उत्तराध्ययनसूत्र पर महाराष्ट्री प्राकृत के प्रभाव का एक विशेष कारण यह भी रहा है कि उत्तराध्ययनसूत्र एवं दशवैकालिकसूत्र ये दोनों आगम प्राचीन होते हुए भी इनके स्वाध्याय का प्रचलन सर्वाधिक रहा है। अतः इन पर देश एवं काल की भाषाओं का अधिक प्रभाव पड़ा। उत्तराध्ययनसूत्र के स्वाध्याय' के प्रचलन का एक सबल साक्ष्य यह भी है कि इस आगम पर सर्वाधिक व्याख्यासाहित्य लिखा गया है; किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं कि उत्तराध्ययनसूत्र का अर्धमागधी रूप पूर्णतः परिवर्तित हो गया है। आज भी उत्तराध्ययनसूत्र में जहां एक ओर महाराष्ट्री प्राकृत से प्रभावित शब्दरूप उपलब्ध होते हैं, वहीं इसमें प्राचीन अर्धमागधी के शब्द रूप भी बहुलता से उपलब्ध होते हैं। इस सन्दर्भ में कुछ शब्द उदाहरणार्थ प्रस्तुत किये जा रहे हैं - ___ अर्धमागधी महाराष्ट्री असंयुक्त 'क' का 'ग' होता है पावगं (६।८) | 'क' का लोप होकर उसके स्थान पर 'य' कुमारगा (१४ ।११) लोगो (१४ ।२२) । | श्रुति होती है यथा - अज्झावयाणं (१२ ।१६) तिय(३१।४) असंयुक्त 'ग' का लोप नहीं होता है 'ग' का लोप होकर उसके स्थान पर 'य' कामभोगेसु (१४।६) सगरो (१८/३५) श्रुति होती है यथा- भोए (१४ ।३७), दुयं (३१।६) मध्यवर्ती 'त' यथावत बना रहता है- चिंतए | 'त' का लोप हो जाता है। उसके स्थान पर (२।४४), अंतिए (७/१२) | या तो अन्तिम स्वर शेष रहता है या 'य' श्रुति होती है- वियोहिए (६।१७), हिंसइ, हवइ प्रथमा में एकारान्त प्रयोग होता हैकयरे (१२।६) धीरे (१५ ॥३) | प्रथमा के एकवचन में ओकारान्त प्रयोग होता है -संभूओ, चित्तो (१३।२) संजओ (१८ /१०) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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