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है कि वेद शब्दशः सुरक्षित रह सके। इसके विपरीत जैनपरम्परा में अर्थ या तात्पर्य की प्रधानता रही, शब्द की नहीं । चूंकि जैनाचार्यों का मुख्य प्रयास यही रहा कि शास्त्रों के शब्द-रूप में चाहे परिवर्तन हो जाये पर अर्थ में परिवर्तन नहीं होना चाहिए। अतः जैनागमों में भाषात्मक परिवर्तन होते चले गये।
(२) आगम साहित्य में भाषा परिवर्तन का एक कारण यह भी था कि श्रमण संघ में विभिन्न देशों के श्रमण सम्मिलित थे। उनका उच्चारण अपनी-अपनी प्रादेशिक बोलियों से प्रभावित था। अतः आगमपाठ के उच्चारण में भी भिन्नता आ गई।
(३) जैनश्रमण भ्रमणशील होते हैं। भ्रमणशीलता के कारण उनकी भाषा पर क्षेत्रीय बोली एवं भाषा का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है। अतः साधुवृन्दों द्वारा स्मृति के आधार पर सुरक्षित आगमों में भी भाषा परिवर्तन हुए।
(४) प्राचीन समय में कागज का प्रचलन नहीं था। अतः ग्रन्थ भोजपत्रों या ताड़पत्रों पर लिखे जाते थे। इन पत्रों पर ग्रन्थ लिखना, लिखवाना या इन्हें सुरक्षित रखना जैन साधुओं के अहिंसा एवं अपरिग्रह सिद्धान्त के विरूद्ध था। लगभग ई. सन् की पांचवीं शती तक लेखनकार्य को पापप्रवृत्ति माना जाता था। अतः वीर निर्वाण के लगभग हजार वर्ष तक जैनसाहित्य श्रुत-परम्परा पर ही आधारित रहा। वह गुरू-शिष्य परम्परा के द्वारा मौखिक रूप में ही सुरक्षित रहा। इस प्रकार सुदीर्घ काल तक मौखिक रहने के कारण भी आगमसाहित्य की भाषा में परिवर्तन आना स्वाभाविक था।
.. (५) आगमों की भाषा परिवर्तन का एक कारण लिपिकारों की असावधानी या उन पर उनके क्षेत्र की भाषा का प्रभाव रहा है। अतः लिपिकार ग्रन्थ लिखते समय अपनी प्रादेशिक बोली से प्रभावित होकर शब्दों में परिवर्तन कर देते
थे- यथा मूल पाठ में प्रयुक्त गच्छति शब्द के स्थान पर प्रचलित शब्द गच्छई को लिख देना।
(६) आगमों की भाषा परिवर्तन का विशेष कारण आगमों के सम्पादक भी रहे हैं। सम्पादकों ने अपने युग एवं क्षेत्र के अनुरूप आगमों के पाठों में व्यापक रूप से परिवर्तन किया। यही कारण है कि मथुरा में संकलित एवं सम्पादित आगमों पर शौरसेनी का प्रभाव तथा वल्लभी में सम्पादित आगमों पर महाराष्ट्री का प्रभाव
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