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उत्तराध्ययनसूत्र दिगम्बर, श्वेताम्बर एवं यापनीय तीनों सम्प्रदायों द्वारा मान्य था। अतः इसका अस्तित्त्व संघभेद से पूर्व अर्थात् ईसा की प्रथम शती के पूर्व ही निश्चित होता है।
उपर्युक्त साक्ष्यों के आधार पर हम उत्तराध्ययनसूत्र के अध्ययनों को एक काल की रचना तो नहीं कह सकते हैं पर इसके संकलनकर्ता के रूप में यदि अन्तिम श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाहु को स्वीकार किया जाये तो इसका संकलनकाल ई. पू. तीसरी शताब्दी के लगभग माना जा सकता है। उत्तराध्ययनसूत्र की विषयवस्तु का अध्ययन करने से हमें ऐसा कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता है जो इसके संकलनकाल को ईसा की प्रथम शती के बाद का सिद्ध कर सके। अतः उत्तराध्ययनसूत्र के विभिन्न अध्ययनों के संकलनकाल को ईस्वी पूर्व का ही मानना होगा ।
2.5 उत्तराध्ययनसूत्र की भाषा
वेदों की भाषा 'संस्कृत', त्रिपिटक की भाषा 'पालि' तथा जैन आगमों की भाषा 'प्राकृत' है। वस्तुतः प्राकृत अपने मूल रूप में भाषा न होकर बोलचाल रही है। अतः प्राकृत कोई एक भाषा न होकर भाषा समूह का नाम है।
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हेमचन्द्र आदि आचार्यों ने प्राकृत के अनेक रूपों का उल्लेख किया है, जैसे मागधी, अर्धमागधी, पालि, शौरसेनी, जैनशौरसेनी, महाराष्ट्री, जैनमहाराष्ट्री, पैशाचीचूलिका, पैशाची, ब्राचड और ढक्की । आगे चलकर इन प्राकृत भाषाओं से हीं विभिन्न अपभ्रंश और अद्यतन अनेक भाषाओं का विकास हुआ है। अतः ये प्राकृतें ही हिन्दी, राजस्थानी, गुजराती, मराठी, बंगला, उड़ीसा आदि सभी भारतीय भाषाओं की पूर्वजा हैं। नमि साधु (ग्यारहवीं शताब्दी) ने प्राकृत की व्याख्या करते हुए लिखा हैप्राकृत, व्याकरण आदि के संस्कार से निरपेक्ष, समस्त जगत के प्राणियों का सहज वचन व्यापार रूप भाषा है। प्राकृत का अर्थ प्राकृत = पूर्वकृत अथवा आदि भाषा है। वह बालकों, महिलाओं आदि के लिए सहज तथा बोधगम्य है और सब भाषाओं का
मूल है।
प्राकृत
के दो भेद हैं
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श्रमण संस्कृति की मूलभाषा को आर्ष प्राकृत कहा जाता है। आर्ष
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