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४. उत्तराध्ययनसूत्र के अठाईसवें अध्ययन में वर्णित द्रव्य गुण पर्याय की परिभाषा पर न्याय-वैशेषिकसूत्रों का प्रभाव परिलक्षित होता है। इस आधार पर इतना तो मानना होगा कि कम से कम यह अध्ययन वैशेषिकसूत्र के बाद का है। वैशेषिक सूत्र का रचनाकाल विद्वानों ने ई. पूर्व दूसरी /तीसरी शताब्दी माना है।
इस आधार पर उत्तराध्ययनसूत्र के परवर्ती अध्ययनों का रचनाकाल वैशेषिकसूत्र के . आसपास अर्थात् ई. पू. दूसरी/तीसरी शती का माना जा सकता है।
५. उत्तराध्ययनसूत्र के छब्बीसवें अध्ययन में छाया, नक्षत्र आदि के द्वार समय निर्णय की प्रक्रिया का विवेचन उपलब्ध होता है। सूर्यप्रज्ञप्ति, जिसका समय विद्वानों ने ई. पू. भी माना है, उसमें भी नक्षत्र द्वारा काल निर्णय का वर्णन प्राप्त होत है। अतः इस साक्ष्य से भी उत्तराध्ययनसूत्र का समय ई. पू. के आसपास का मान जा सकता है।
६. उत्तराध्ययनसूत्र में गुणस्थानक सिद्धान्त का अभाव है। इससे भी यह तो निश्चित किया जा सकता है कि इसका संकलन कम से कम गुणस्थानक सिद्धान्त के अस्तित्व में आने अर्थात् ईसा की पांचवीं शती से पूर्व अवश्य हो चुका होगा।
७. उत्तराध्ययनसत्र में परिभाषात्मक वर्णन का अभाव है। इसमें कर्म, लेश्या आदि प्रत्ययों की परवर्ती ग्रन्थों के समान परिभाषां प्राप्त नहीं होती है। यह भी इसके प्राचीन ग्रन्थ होने का प्रमाण है, क्योकि प्राचीन ग्रन्थों में प्रायः परिभाषात्मक शैली का अभाव होता है।
८. उत्तराध्ययनसूत्र के इकतीसवें अध्ययन में दशाश्रुतस्कन्ध आदि छेद सूत्रों का उल्लेख आता है और छेदसूत्रों के रचनाकार आचार्य भद्रबाहु (ई.पू. तीसरी शताब्दी) हैं। अतः उत्तराध्ययनसूत्र का यह अध्ययन ई. पू. तीसरी शताब्दी के बाद का मानना होगा।
६. भाषा की दृष्टि से विचार करने पर उत्तराध्ययनसूत्र के सभी अध्ययनों को एक काल की रचना नहीं माना जा सकता है। इसमें एक और प्राचीन अर्धमागधी प्राकृत के शब्दों/रुपों का प्रयोग मिलता है, तो दूसरी ओर इसमें अर्वाचीन महाराष्ट्री प्राकृत शब्द-रूप भी उपलब्ध होते हैं।
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