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अधिक ठोस साक्ष्यों के खोज की आवश्यकता को अस्वीकार नहीं किया जा सकता
२.४ उत्तराध्ययनसूत्र का काल निर्धारण
उत्तराध्ययनसूत्र एक प्राचीन आगम ग्रन्थ है। कुछ विद्वानों की दृष्टि में यह एक संकलन ग्रन्थ है, फिर भी इसकी प्राचीनता असंदिग्ध है, जो भाषा शैली, विषयवस्तु आदि अनेक तथ्यों से भी प्रामाणित होती है । इस सम्बन्ध में इतना अवश्य है कि उत्तराध्ययनसूत्र के सभी अध्ययनों के संकलन को हम एक काल का संकलन नहीं कह सकते हैं। निम्न कुछ तथ्य हैं जिनके प्रकाश में उत्तराध्ययनसूत्र का काल निर्णय किया जा सकता है
१. नन्दीसूत्र के अनुसार अंगबाह्य कालिकग्रन्थों में 'उत्तराध्ययनसूत्र' का नाम सर्वप्रथम प्राप्त होता है, तथा तत्त्वार्थसूत्र के स्वोपज्ञभाष्य में स्वयं आचार्य उमास्वाति ने उत्तराध्ययनसूत्र का निर्देश किया है। इससे इतना निश्चित हो जाता है कि ईसा की चौथी-पांचवीं शताब्दी पूर्व उत्तराध्ययनसूत्र का अस्तित्व था। . २. दशवैकालिकसूत्र में उत्तराध्ययनसूत्र की अनेक गाथायें, विषय तथा कथायें उपलब्ध हैं। दशवैकालिक में वर्णित राजीमती और रथनेमि की संक्षिप्त कथा का विस्तृत वर्णन हमें उत्तराध्ययनसूत्र के बाइसवें अध्ययन में प्राप्त होता है। यह तथ्य उत्तराध्ययनसूत्र को दशवैकालिकसूत्र से पूर्व का प्रमाणित करता है और दशवैकालिक का रचना काल महावीर निर्वाण की प्रथम शताब्दी है। अतः उत्तराध्ययनसूत्र का यह अध्ययन तो इसके भी पूर्व का अर्थात वीर निर्वाण की प्रथम शती का होना चाहिए।
३. उत्तराध्ययनसूत्र में द्विविध से लेकर पंचविध मोक्षमार्ग की चर्चा उपलब्ध होती है। इससे यह ज्ञात होता है कि उस काल तक मोक्षमार्ग की निश्चित संख्या का निर्णय नहीं हुआ था। तत्त्वार्थसूत्र में स्पष्टतः त्रिविध मोक्षमार्ग की चर्चा उपलब्ध होती है, अतः उत्तराध्ययनसूत्र को चौथी शताब्दी से पूर्व का माना जा सकता है।
४० (क) दशवकालिकसूत्र २/७, ८, ६, १० एवं ११ । (ख) उत्तराध्ययनसूत्र के प्रथम 'विनयश्रुत' अध्ययन एवं दशवकालिक के नवम अध्ययन 'विनय समाधि' या मराध्ययनसूत्र के
बाईसवें अध्ययन एवं दशवकालिक के द्वितीय अध्ययन आदि में विषय वस्तु की समानता उपलब्ध होती है। Jain Education International For Personal & Private Use Only
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