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दोनों आचार्यों ने प्रोक्त शब्द का अर्थ विशेष रूप से व्याख्यान और अध्यापन ही किया है। इसके अतिरिक्त 'तेन प्रोक्तम् ४ | ३ | १० ' इस पाणिनीय सूत्र ( तेन प्रोक्तम् ४ | ३ |१० पाणिनिना प्रोक्तं पाणिनीयम्। तेन प्रोक्तम्-प्रकर्षेणोक्तं प्रोक्तमित्युच्यते नतु कृतम् । कृते ग्रन्थे इत्यनेन गतार्थत्वात् । प्रोक्तमिति–स्वयमन्येन कृतं, व्याकरणमध्यापनेनार्थव्याख्यानेन वा प्रकाशितमित्यर्थः) । की व्याख्या में तत्त्वबोधिनीकार दण्डी ने भी प्रोक्त शब्द का ऊपर की भांति ही अर्थ किया है। तात्पर्य यह कि किसी के कहे हुए को कहना - अध्यापन और व्याख्यान द्वारा प्रकाशित करना, उसका नाम 'प्रोक्त' है, और नवीन रचना कृति कहलाती है। इसलिये भद्रबाहु स्वामी उत्तराध्ययनसूत्र के कत नहीं, किन्तु व्याख्याता कहे जाते हैं। यदि भद्रबाहु स्वामी इसके कर्त्ता होते तो उन्होंने निर्युक्ति में उत्तराध्ययन सूत्र के विषय में जो यह लिखा है कि उसके कुछ अध्ययन तो पूर्व से उद्धृत् हैं और कुछ जिन - भाषित तथा कई एक प्रत्येकबुद्धादि रचित हैं इत्यादि, सो किस प्रकार से संगत होगा? इसलिये उत्तराध्ययनसूत्र को श्री भद्रबाहु स्वामी की कृति - रचना कहना व मानना किसी प्रकार से उचित प्रतीत नहीं होता।"
इस प्रकार आचार्य आत्माराम जी के अनुसार आचार्य भद्रबाहु उत्तराध्ययनसूत्र के कर्ता नहीं माने जा सकते हैं। इसी तथ्य को प्रकारान्तर से मुनि नगराज जी ने अपने ग्रन्थ 'आगम और त्रिपिटक एक अनुशीलन (द्वितीयभाग )' तथा 'जैनागमदिग्दर्शन' में प्रस्तुत किया है। पूर्वोक्त दोनों पुस्तकों का विवरण अक्षरशः समान । अतः हम यहां 'आगम और त्रिपिटक' वाले मंतव्य को अविकल समान रूप से प्रस्तुत कर रहे हैं। वे लिखते हैं कि
"भद्रबाहुना प्रोक्तानि भद्रबाह्वानि उत्तराध्ययनानि
इस प्रकार का भी उल्लेख प्राप्त होता है, जिससे कुछ विद्वान् सोचते हैं कि उत्तराध्ययनसूत्र के रचयिता आचार्य भद्रबाहु हैं। सबसे पहले विचारणीय यह है कि उत्तराध्ययनसूत्र की नियुक्ति के लेखक भद्रबाहु हैं । जैसा कि पूर्व सूचित किया गया है, वे उत्तराध्ययनसूत्र की रचना में अंग-प्रभवता जिन - भाषितता, प्रत्येक बुद्ध - प्रतिपादितता, संवाद- निष्पन्नता आदि कई प्रकार के उपपादक हेतुओं का आख्यान करते हैं। उपर्युक्त कथन में भद्रबाहुना के साथ प्रोक्तानि क्रिया-पद प्रयुक्त हुआ है। प्रोक्तानि का अर्थ रचितानि नहीं होता । प्रकर्षेण उक्तानि - प्रोक्तानि के अनुसार उसका अर्थ विशेष रूप से व्याख्यात, विवेचित या अध्यापित होता है। शाक्टायन (ट: प्रोक्ते ३ । १ १६६ - शाकटायन) और सिद्धहैमशब्दानुशासन ( तेन प्रोक्ते ६ । ३ । १८ – सिद्ध हैमशब्दानुशासन) आदि व्याकरणों में यही आशय स्पष्ट किया गया है। इस विवेचन के अनुसार आचार्य भद्रबाहु उत्तराध्ययनसूत्र के प्रकृष्ट व्याख्याता, प्रवक्ता या प्राध्यपयिता हो सकते हैं, रचयिता नहीं ।"
इस प्रकार उनका भी निष्कर्ष यही है कि आचार्य भद्रबाहु चाहे • उत्तराध्ययनसूत्र के व्याख्याता या प्रवक्ता हों किन्तु रचयिता नहीं हैं।
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