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________________ ४. संवाद समुत्थित । नियुक्तिकार के अनुसार उत्तराध्ययनसूत्र का दूसरा 'परीषह अध्ययन अंग प्रभव है। यह कर्म - प्रवाद पूर्व के सतरहवें प्राभृत से उद्धृत् है। चुर्णिकार” एवं वृहद्वृत्तिकार* ( शान्त्याचार्य) के अनुसार दसवां 'द्रुमपत्रक' नामक अध्ययन जिनभाषित, आठवां 'कापिलीय' अध्ययन प्रत्येकबुद्धभाषित तथा नवमां एवं तैंतीसवां 'नमिराजर्षि ' एवं 'केशीगौतमीय' ये दो अध्ययन संवादात्मक हैं। यह भी मान्यता है कि 'विनयश्रुत', 'परीषह विभक्ति', 'असंस्कृत', 'अकाम-मरणीय', 'क्षुल्लकनिर्ग्रन्थिय', 'बहुश्रुतपूजा' जैसे कुछ अध्ययन महावीरभाषित हैं। 'केशिगौतमीय' तथा 'खलुंकीय' आदि कुछ अध्ययन आचार्यभाषित हैं तथा 'नमि- प्रव्रज्या', 'कापिलीय' एवं 'संजयीय' आदि अध्ययन प्रत्येकबुद्धों के संवाद रूप हैं। इस विभाजन का आधार 'प्रश्नव्याकरणसूत्र' की प्राचीन विषयवस्तु के सन्दर्भ में स्थानांग एवं समवायांग के निर्देश तथा निर्युक्तिकार द्वारा उत्तराध्ययनसूत्र के कुछ अध्ययनों को अंगप्रभव मानना है। उनकी यह मान्यता है कि प्रश्नव्याकरण की प्राचीन विषयवस्तु के आधार पर ही वर्तमान में उपलब्ध 'ऋषिभाषित' की एवं उत्तराध्ययनसूत्र की विषयवस्तु बनी है फिर भी सभी अध्ययनों को इन आधारों पर वर्गीकृत करना कठिन है। उदाहरण के रूप में इसके अठारहवें 'संजयीय' अध्ययन को एक ओर प्रत्येकबुद्धभाषित कहा जाता है, किन्तु उसकी २४वीं गाथा में आये 'बुद्ध' शब्द का अर्थ प्रत्येकबुद्ध और महावीर दोनों ही किया जाता है। इस प्रकार यह कहना कठिन है कि कौन-सा अध्ययन किसके द्वारा भाषित है । अतः समुच्चय रूप में यही मानना उचित है कि उत्तराध्ययनसूत्र में प्रत्येकबुद्धभाषित महावीरभाषित और आचार्यभाषित तथा अंगों से संकलित अंश हैं। इस प्रकार उत्तराध्ययन सूत्र को एक कर्त्तृक नहीं मानकर एक संग्रह - ग्रन्थ ही मानना होगा। फिर भी यह प्रश्न तो बना ही रहता है कि इसका संग्रह या संकलन किसने किया ? प्राचीन काल में संग्राहक या संकलनकर्ता कहीं भी अपना नाम निर्देश नहीं करते थे । अब इस सम्बन्ध में यही मानकर संतोष करना होगा कि उत्तराध्ययनसूत्र के अनेक कर्ता हैं और इसके संकलनकर्ता कोई पूर्वधर आचार्य रहे होंगे। ३६ 'कम्मप्पवापुब्वे, सत्तरसे पाहुडमिजं सुत्तं । सणयं सोदाहरणं, तं चैव इहंपि नायव्वं ॥।' ६५ • उत्तराध्ययननियुक्ति गाथा ६६ (निर्युक्तिसंग्रह पृष्ठ ३७१) । ३७ 'जिणभासिया जहा दुमपत्तगादि, पत्तेयबुद्धभासियाणि जहा काविलिज्जादि, संवाओ जहा णमिपब्वज्जा केसिगोयमेज्जं च ।' - उत्तराध्ययनचूर्णि पत्र ७ । ३८ उत्तराध्ययनसूत्र की शान्त्याचार्य कृत टीका पत्र ५ । :- ३६. 'प्रश्नव्याकरण की प्राचीनविषयवस्तु की खोज' Jain Education International - डॉ. सागरमल जैन, 'जैन विधा के आयाम' खण्ड ६ । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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