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आचार्य तुलसी आचार्य देवेन्द्रमुनि" डॉ. शुबिंग आदि का अभिमत है कि इनमें मुनि के मूलगुणों अर्थात् महाव्रत, समिति, गुप्ति आदि का निरूपण है; इस दृष्टि से इन्हें मूलसूत्र की संज्ञा दी गई है। डॉ. सुदर्शनलाल जैन भी इस मत से सहमत हैं।
अन्य अपेक्षा से मूलगुण रूप, दर्शन, ज्ञान, चारित्र एवं तप का पोषण करने वाले शास्त्रों को भी मूलसूत्र कहा गया है यथा नन्दीसूत्र ज्ञान के स्वरूप आदि का विवेचन करता है। अतः यह ज्ञानगुण का प्रकाशक है। अनुयोगद्वार में वर्णित 'नयनिक्षेप' यथार्थ स्वरूप को समझने एवं समझाने में प्रधान कारण है। सापेक्ष वस्तुतत्त्व को समझना ही सम्यग्दर्शन है। अतः अनुयोगद्वार सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति का साधन है। दशवैकालिकसूत्र सर्वविरति रूप चारित्र की प्रेरणा से ओतप्रोत है। अतः चारित्रधर्म का प्रकाशक है।
___— उत्तराध्ययनसूत्र का प्रारम्भ विनयरूप आभ्यन्तर तप से हुआ है। तीसवें अध्ययन में तप का व्यापक निरूपण है। पुनः अठाईसवें एवं छत्तीसवें अध्ययन में संलेखना आदि के सन्दर्भ में, तप का वर्णन है, अतः इसमें तप की प्रधानता है।
. यह मान्यता इसलिये समीचीन प्रतीत नहीं होती है कि इन्हें मूलसूत्र कहने का आधार यदि मूलगुणों का उपदेश है तो सम्पूर्ण आगम साहित्य ही अध्यात्म एवं वैराग्य प्रधान है। अतः वे सभी मूलसूत्र कहलाने चाहिए। पुनश्च मूलगुणों की प्रधानता की अपेक्षा से भी विचार किया जाय तो आचारांगसूत्र तो आचारप्रधान ही है। अतः उसकी गणना भी मूलसूत्रों के अन्तर्गत होनी चाहिए।
... उत्तराध्ययनसूत्र को मूलसूत्र मानने का एक आधार श्रुतपुरूष की कल्पना भी है। चूर्णिकालीन श्रुतपुरूष के मूलस्थान (चरण स्थान) में आचारांग एवं सूत्रकृतांग थे। किन्तु उत्तराकालीन श्रुतपुरूष के 'मूलस्थान' में दशवैकालिक और उत्तराध्ययनसूत्र आ गये। इन्हें मूल मानने का यह भी एक सम्भावित हेतु माना गया है। फिर भी यह प्रश्न तो बना ही रहेगा कि आवश्यक, पिण्डनियुक्ति एवं ओघनियुक्ति को मूलसूत्र मानने का आधार क्या है ?
२६ उत्तराध्ययनसूत्र भूमिका पृष्ठ ८ २७ उत्तराध्ययनसूत्र भूमिका पृष्ठ २१ २८ दशवकालिकसूत्र भूमिका पृष्ठ ३ २६ 'उत्तराध्ययनसूत्र : एक परिशीलन' - पृष्ठ १४
- आचार्य तुलसी। - आचार्य देवेन्द्रमुनि। - (उद्धृत- उत्तराध्ययनसूत्र भूमिका आचार्य तुलसी पृष्ठ ८)। - डॉ. सुदर्शनलाल जैन ।
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