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________________ योग- शास्त्र ३. श्लिष्ट मन, और ४. सुलीन मन—चार भेद करके वर्णन में नवीनता एवं शैली में चमत्कार लाने का प्रयत्न किया है । ६० प्राप्त करने के साधन, गुरु सेवा के इन्द्रिय एवं मन पर विजय प्राप्त करने इसके पश्चात् भव्य जीवों को उपदेश के रहस्य को समझाया है । इसके अतिरिक्त बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा के स्वरूप, सिद्धि महत्व एवं उसके फल तथा दृष्टि, के साधनों का वर्णन किया है । देकर शान्ति एवं श्रात्म - साधना अन्त में ग्रन्थकार ने योग-शास्त्र रचने के उद्देश्य का भी उल्लेख कर दिया है । इसमें उन्होंने बताया है कि राजा कुमारपाल की प्रार्थना पर मैंने योग- शास्त्र का निर्माण किया है । योग-विषयक साहित्य का एवं प्रस्तुत ग्रन्थ का अनुशीलन- परिशीलन करने के बाद हम निःसन्देह कह सकते हैं कि भारत में योग का प्रत्यधिक महत्व रहा है । और मध्य युग में लौकिक कार्यों को सिद्ध करने के लिए भी योग का सहारा लिया जाता रहा है । और अनेक मंत्र एवं विद्यात्रों की साधना की जाती रही 1 भारत में योग का क्या महत्त्व था और किस परंपरा में वह किस रूप में आया एवं विकसित हुआ ? इस बात को स्पष्ट करने के लिए हमने योग- शास्त्र का गहराई से परिशीलन किया और वह पाठकों के सामने प्रस्तुत है । प्रस्तुत निबन्ध में हमने भारतीय योग-साधना एवं साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया है और तीनों विचारधाराओं में रहे हुए साम्य को भी दिखाने का प्रयत्न किया है, जिससे योग - शास्त्र के जिज्ञासु पाठकों को समग्र भारतीय योग- साहित्य का सहज ही परिचय मिल जाए । जैन परंपरा निवृत्ति प्रधान है। साधना पर विशेष जोर दिया है । Jain Education International इसलिए जैन विचारकों ने योगऔर प्राचार - साधना में योग को For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004234
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSamdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
PublisherRushabhchandra Johari
Publication Year1963
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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