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________________ एक परिशीलन महत्व दिया है-भले ही वह प्राचार श्रमण-साधना का हो या श्रमणोपासक-गृहस्थ की उपासना का । साधु एवं गृहस्थ दोनों के प्राध्यात्मिक विकास करने एवं साध्य तक पहुँचने के लिए योग को उपयोगी माना है। ज्ञान के साथ साधना के महत्त्व को स्पष्टतः स्वीकार किया है। ज्ञान और योग-प्राचार या क्रिया की समन्वित साधना के बिना मोक्ष की प्राप्ति होना कठिन ही नहीं, असंभव है, अशक्य है। ___ जैन परंपरा में योग-साधना पर संस्कृत एवं प्राकृत में बहुत कुछ लिखा गया है। आगमों में योग पर अनेक स्थलों पर विचार बिखरे पड़े हैं। प्राचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग एवं भगवती सूत्र में अनेक स्थानों पर योग का वर्णन मिलता है। जैन आगम-साहित्य में साधना के अर्थ में योग के स्थान में 'ध्यान' शब्द का प्रयोग किया है । आगमों के बाद नियुक्ति, चूणि एवं भाष्यों में भी आगम-सम्मत योग-साधना का विस्तृत वर्णन मिलता है। आवश्यक नियुक्ति, विशेषावश्यक भाष्य, आवश्यक वृत्ति में भी ध्यान के स्वरूप, उसके भेदों एवं उसकी साधना का विस्तार से वर्णन किया है। प्राचार्य कुन्द-कुन्द के ग्रन्थों में भी योग का वर्णन मिलता है। जैन परंपरा में योग-साधना पर क्रम-बद्ध साहित्य सृजन करने का श्रेय आचार्य हरिभद्र को है। योग-साहित्य पर सर्व-प्रथम उन्होंने लेखनी चलाई। उनके बाद दिगम्बर-श्वेताम्बर अनेक आचार्यों एवं विचारकों ने योग पर साहित्य लिखा और कई विचारकों ने वैदिक एवं बौद्ध परंपरा की योग प्रक्रिया का जैन परंपरा के साथ समन्वय करने का भी प्रयत्न किया। वस्तुतः देखा जाए तो इस विषय में समन्वयात्मक शैली के जन्मदाता भी प्राचार्य हरिभद्र ही थे। प्रस्तुतं निबन्ध में योग-साहित्य का पूरा परिचय तो नहीं दिया जा सकता। प्रस्तुत में संक्षिप्त परिचय ही दिया जा सकता है। अतः Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004234
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSamdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
PublisherRushabhchandra Johari
Publication Year1963
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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