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एक परिशीलन
अन्तिम दो ग्रन्थ प्राकृत भाषा में हैं। योग-बिन्दु में ५२७ श्लोक हैं, योगदृष्टि - समुच्चय २२७ श्लोकों का है। योग शतक और योग-विशिका में उनके नामों के अनुरूप क्रमशः १०० और २० गाथाएँ हैं ।
१. योग-बिन्दु
प्रस्तुत ग्रन्थ में सर्वप्रथम योग के अधिकारी का उल्लेख किया है । जो जीव करमावर्त में रहते हैं, अर्थात् जिसका काल मर्यादित हो गया है, जिसने मिथ्यात्व ग्रन्थि का भेदन कर लिया है और जो शुक्लपक्षी है, वह योग साधना का अधिकारी है । वह योग-साधना के द्वारा अनादि काल से चले श्रा रहे श्रपरिज्ञात संसार या भव-भ्रमण का अन्त कर देता है।' इसके विपरीत जो श्रचरमविर्त में स्थित हैं, वे मोह-कर्म की प्रबलता के कारण संसार में, विषय-वासना में श्रौर काम भोगों में प्रासक्त बने रहते हैं । अतः वे योग मार्ग के अधिकारी नहीं हैं । श्राचार्य ने उन्हें 'भवाभिनन्दी' की संज्ञा से सम्बोधित किया है।
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योग के अधिकारी जीवों को आचार्य ने चार भागों में विभक्त किया है - १. पुनबंधक, २. सम्यग्दृष्टि या भिन्नग्रन्थि, ३. देशविरति, नौर ४. सर्व विरति — छट्ट गुणस्थान से लेकर चतुर्दश गुणस्थान पर्यन्त । प्रस्तुत ग्रन्थ में उक्त चार भेदों के स्वरूप एवं अनुष्ठान पर विस्तार से विचार किया गया है ।
चारित्र के वर्णन में आचार्य श्री ने पाँच योग-भूमिकाओं का वर्णन किया है- १. अध्यात्म, २. भावना, ३. ध्यान, ४. समता, श्रौर ५. वृत्तिसंक्षय । यह अध्यात्म आदि योग साधना देशविरति नामक पञ्चम गुणस्थान से ही शुरू होती है । अपुनर्बन्धक एवं सम्यग्दृष्टि अवस्था में चारित्र मोहनीय की प्रबलता रहने के कारण योग बीज रूप में रहता है,
१. योम-बिन्दु, ७२, ६६. २. बही, ८५-८७.
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