SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 52
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ૪૪ अंकुरित एवं पल्लवित पुष्पित नहीं होता । भतः योग-साधना का विकास देशविरति से माना गया है । १. अध्यात्म यथाशक्य अणुव्रत या महाव्रत को स्वीकार करके मंत्री, प्रमोद, करुणा एवं माध्यस्थ भावना - पूर्वक आगम के अनुसार तत्त्व या आत्म-: चिन्तन करना अध्यात्म-साधना है। इससे पाप कर्म का क्षय होता है, वीर्य - सद् पुरुषार्थ का उत्कर्ष होता है और चित्त में समाधि की प्राप्ति होती है । २. भावना प्रध्यात्म चिन्तन का बार-बार अभ्यास करना 'भावना' है । इससे काम, क्रोध आदि मनोविकारों एवं अशुभ भावों की निवृत्ति होती है और ज्ञान प्रादि शुभ भाव परिपुष्ट होते हैं । ३. ध्यान तत्त्व चिन्तन की भावना का विकास करके मन को, चित्त को किसी एक पदार्थ या द्रव्य के चिन्तन पर एकाग्र करना, स्थिर करना 'ध्यान' है । इससे चित्त स्थिर होता है और भव- परिभ्रमण के कारणों का नाश होता है । समता संसार के प्रत्येक पदार्थ एवं सम्बन्ध पर-१ प्रतिष्ट, तटस्थ वृत्ति रखना 'समता' है। होती है फोर कर्मों का क्षय होता है । - भले ही वह इष्ट हो या इससे अनेक लब्धियों की प्राप्ति ५. वृति-संक्ष विजातीय द्रव्य से उद्भूत चित्तवृत्तियों का जड़मूल से नाश करना 'वृत्ति-संक्षय' है । इस साधना के सफल होते ही जातिकर्म का Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004234
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSamdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
PublisherRushabhchandra Johari
Publication Year1963
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy