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________________ चतुर्थ प्रकाश १४१ लोको जगत्त्रयाकीर्णो भुवः सप्नात्र वेष्टिताः । घनाम्भोधि - महावात - तनुवातैर्महाबलः ।। १०४ ।। लोक तीन जगत् से व्याप्त है, जिन्हें-अधो-लोक, मध्य-लोक और ऊर्ध्व-लोक कहते हैं । अधो-लोक में सात नरक-भूमियाँ हैं, जो घनोदधिजमे हुए पानी, घनवात-जमी हुई वायु और तनुवात-पतली वायु से वेष्टित हैं। यह तीनों इतने प्रबल हैं कि पृथ्वी को धारण करने में समर्थ होते हैं। . वेत्रासनसमोऽधस्तान्मध्यतो झल्लरीनिभः । अग्रे मुरजसंकाशो लोकः स्यादेवमाकृतिः ।। १०५ ।। लोक अधोभाग में वेत्रासन के आकार का है अर्थात् नीचे विस्तार वाला और ऊपर क्रमशः सिकुड़ा हुआ है । मध्यभाग में झालर के प्राकार का और ऊपर मृदंग सदृश आकार का है। तीनों लोकों की यह आकृति मिलने से लोक का आकार बन जाता है। निष्पादितो न केनापि न धृतः केनचिच्च सः । स्वयं-सिद्धो निराधारो गगने किन्त्ववस्थितः ॥ १०६ ।। इस लोक को न तो किसी ने बनाया है और न धारण कर रखा है । वह अनादि काल से स्वयं सिद्ध है । उसका कोई आधार नहीं है, किन्तु वह आकाश में स्थित है। - १२. बोधिदुर्लभ-भावना अकाम-निर्जरा-रूपात्पुण्याज्जन्तोः प्रजायते । स्थावरत्वात्त्रसत्वं वा तिर्यक्त्वं वा कथञ्चन ।। १०७ ।। मानुष्यमार्य-देशश्च जातिः सर्वाक्षपाटवम् । नायुश्च प्राप्यते तत्र कथञ्चित्कर्म-लाघवात् । १०८ ॥ . प्राप्तेषु पुण्यतः श्रद्धा-कथक-श्रवणेष्वपि । . तत्त्व-निश्चय-रूपं तद्बोधिरत्नं सुदुर्लभम् ।। १०६ ।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004234
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSamdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
PublisherRushabhchandra Johari
Publication Year1963
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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