________________
४२
योग-शास्त्र
भावनाभिरविश्रान्तमिति भावित-मानसः ।
निर्ममः सर्वभावेषु समत्वमवलम्बते ॥ ११० ॥ पहाड़ी नदी के प्रवाह में बहता हुआ पाषाण टक्करें खाते-खाते जैसे गोल-मटोल बन जाता है, उसी प्रकार जन्म-मरण के प्रवाह में बहने वाले इस जीव को कभी-कभी विशिष्ट अकाम-निर्जरा रूप पुण्य की प्राप्ति होती है, अर्थात् अनजान में ही उसके कर्मों की निर्जरा हो जाती है, जिससे उसमें एक प्रकार का लाघव आ जाता है। उस लाघव के प्रभाव से जीव स्थावर पर्याय से त्रस पर्याय पा लेता है अथवा पंचेन्द्रिय तिर्यच हो जाता है।
तत्पश्चात् किसी प्रकार से कर्मों की अधिक-अधिक लघुता होने पर मनुष्य-पर्याय, आर्य देश में जन्म, उत्तम जाति, पाँचों इन्द्रियों की परिपूर्णता और दीर्घ आयु की प्राप्ति होती है। .
उपर्युक्त संयोगों के साथ विशेष पुण्य के उदय से धर्माभिलाषा रूप श्रद्धा, धर्मोपदेशक गुरु और धर्म-श्रवण, की प्राप्ति होती है, परन्तु यह सब प्राप्त हो जाने पर भी तत्त्व निश्चय रूप सम्यक्त्व बोधि-रत्न की प्राप्ति होना अत्यन्त कठिन है ।
इन द्वादश भावनों से जिसका चित्त निरन्तर भावित रहता है, वह प्रत्येक पदार्थ और प्रत्येक परिस्थिति में अनासक्त रहता हुआ समभाव का अवलम्बन करता है। समभाव का प्रभाव
विषयेभ्यो विरक्तानां साम्यवासित-चेतसाम् ।
उपशाम्येत् कषायाग्निर्बोधिदीपः समुन्मिषेत् ॥ १११ ।। विषयों से विरक्त और समभाव से युक्त चित्त वाले मनुष्यों की कषाय रूपी अग्नि शान्त हो जाती है और सम्यक्त्व रूपी दीपक प्रदीप्त हो जाता है।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org