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________________ १४० योग-शास्त्र जिन्होंने धर्म का शरण ग्रहण कर लिया है, उनका राक्षस, यक्ष, अजगर, व्याघ्र, सर्प, आग और विष प्रादि हानिकर पदार्थ भी कुछ नहीं बिगाड़ सकते। धर्मो नरक-पाताल-पातादवति देहिनः । धर्मो निरुपमं यच्छत्यपि सर्वज्ञ-वैभवम् ॥ १०२ ।। धर्म प्राणी को नरक-पाताल में पड़ने से बचाता भी है और सर्वज्ञ के उस वैभव को प्रदान भी करता है जिसकी कोई उपमा नहीं । अर्थात् धर्म अनर्थ से बचाता है और इष्ट अर्थ की प्राप्ति कराता है। ११. लोक-भावना कटिस्थ-कर - वैशाखस्थानकस्थ - नराकृतिम् । द्रव्यैः पूर्ण स्मरेल्लोकं स्थित्युत्पत्तिव्ययात्मकैः ।। १०३ ।। कमर के ऊपर दोनों हाथ रखकर और पैरों को फैलाकर खड़े हुए पुरुष की आकृति के सदृश आकृति वाले और उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य धर्म वाले द्रव्यों से व्याप्त लोक का चिन्तन करे। टिप्पण-अनन्त और असीम आकाश का कुछ भाग धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय आदि द्रव्यों से व्याप्त है और शेष भाग ऐसा है जहाँ आकाश के अतिरिक्त अन्य कोई द्रव्य नहीं है । इस उपाधि-भेद के कारण आकाश दो भागों में विभक्त माना गया है। जिसमें धर्मास्तिकाय आदि द्रव्य व्याप्त हैं, वह 'लोक' कहलाता है और इनसे रहित केवल आकाश को 'अलोक' संज्ञा दी गई है । लोक का आकार किस प्रकार का है, यह बात यहाँ बताई गई है। ___ लोक षट्-द्रव्यमय है और प्रत्येक द्रव्य, पर्याय की दृष्टि से प्रतिक्षण उत्पन्न और विनष्ट होता रहता है, किन्तु द्रव्य की अपेक्षा से वह ध्रुवनित्य है । इस प्रकार षट्-द्रव्यमय लोक के स्वरूप का चिन्तन करने को 'लोक भावना' कहते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004234
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSamdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
PublisherRushabhchandra Johari
Publication Year1963
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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