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___ चतुर्थ प्रकाश
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न ज्वलत्यनलस्तिर्यग् यदूर्ध्वं वाति नानिलः । अचिन्त्य-महिमा तत्र धर्म एव निबन्धनम् ॥ ७ ॥ निरालम्बा निराधारा विश्वाधारो वसुन्धरा । यच्चावतिष्ठते तत्र धर्मादन्यन्न कारणम् ॥ ६८ । सूर्या-चन्द्रमसावेतौ विश्वोपकृति-हेतवे ।
उदयेते जगत्यस्मिन् नूनं धर्मस्य शासनात् ।। ६६ ।। समुद्र इस पृथ्वी को बहा नहीं ले जाता और जलधर पृथ्वी को परितृप्त करता है, निस्सन्देह यह केवल धर्म का ही प्रभाव है। ___ अग्नि की ज्वालाएँ यदि तिर्की जातीं तो जगत् भस्म हो जाता और पवन ति: गति के बदले ऊर्ध्वगति करता होता तो जीव-धारियों का जीना कठिन हो जाता। किन्तु, ऐसा नहीं होता। इसका कारण धर्म ही है । वास्तव में धर्म की महिमा चिन्तन से परे है ।
समग्र विश्व का आधार यह पृथ्वी बिना किसी अवलम्बन के और बिना किसी आधार के जो ठहरी हुई है, इसमें धर्म के अतिरिक्त अन्य कोई भी कारण है।
वस्तुतः जगत् का उपकार करने के लिए यह जो चन्द्र और सूर्य प्रतिदिन उदित होते रहते हैं, वह किसके आदेश से ? धर्म के प्रादेश से ही उदित होते हैं।
अबन्धूनामसौ बन्धुरसखीनामसौ सखा ।
अनाथानामसौ नाथो धर्मो विश्वैकवत्सलः ।। १०० ।। . धर्म उनका बन्धु है, जिनका संसार में कोई बन्धु नहीं है। धर्म उनका सखा है, जिनका कोई सखा नहीं है। धर्म उनका नाथ है, जिनका कोई नाथ नहीं है। अखिल जगत् के लिए एक मात्र धर्म ही रक्षक है। - रक्षो-यक्षोरग-व्याघ्र-व्यालानलगरादयः ।
नापक मलं तेषां यधर्मः शरणं श्रितः ।। १०१ ।।
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