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________________ योग-शास्त्र समानधार्मिकेभ्यश्च, तथावग्रहयाचनम् । अनुज्ञापितपानान्नाशनमस्तेयभावनाः ॥ २६ ॥ . १. सोच-विचार कर अवग्रह-निवास स्थान की याचना करना, २. बार-बार अवग्रह की याचना करना, ३. इतना ही स्थान मेरे लिए उपयोगी है, ऐसा निश्चय करके याचना करना, ४. किसी स्थान में पहले से ठहरे हुए समधर्मी साधुओं से याचना करना, और ५: गुरु की अनुमति लेकर अन्न-पानी, आसन आदि काम में लाना-यह अचौर्यमहाव्रत की पाँच भावनाएं हैं। । स्त्रीषण्ढपशुमद्वेश्मासन-पड्यान्तरोज्झनात् ।। सरागस्त्रीकथात्यागात्, प्राग्रतस्मृतिवर्जनात् ॥३०॥ स्त्रीरम्याङ्ग क्षणस्वाङ्ग-संस्कार परिवर्जनम् । प्रणीतात्यशनत्यागाद्, ब्रह्मचर्य तु भावेयत् ॥३१॥ १. स्त्रो, नपुंसक और पशु वाले मकान का, वे जिस आसन पर बैठे हों उस आसन का और बीच में दीवार के व्यवधान वाले स्थान का त्याग करना, २. रागभाव से. स्त्री-कथा का त्याग करना, ३.गृहस्थावस्था में भोगे हए काम-भोगों को स्मरण न करना, ४. स्त्री के रमणीय अंगोपांगों का निरीक्षण न करना और अपने शरीर का संस्कार न करना, तथा ५. कामोत्तेजक एवं परिमाण में अधिक भोजन का त्याग करना । इन पाँच भावनाओं से ब्रह्मचर्य-महाव्रत को भावित करना चाहिए। स्पर्शे रसे च गन्धे च, रूपे शब्दे च हारिणि । पञ्चस्वितीन्द्रियार्थेषु, गाढं गाद्धर्यस्य वर्जनम् ।।३२।। एतेष्वेवामनोज्ञषु, सर्वथा द्वष वर्जनम् । आकिञ्चन्यव्रतस्येवं, भावनाः पञ्च कीर्तिताः ॥३३॥ पांचों इन्द्रियों के मनोहर स्पर्श, रस, गंध, रूप और शब्द में अधिक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004234
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSamdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
PublisherRushabhchandra Johari
Publication Year1963
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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