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________________ प्रथम प्रकाश १५ पासक्ति का त्याग करना और अमनोज्ञ स्पर्श आदि में द्वेष का त्याग करना-अपरिग्रह-महाव्रत की पाँच भावनाएं हैं। टिप्पण-व्रतों का भली-भाँति पालन करने के लिए कुछ सहायक नियमों की अनिवार्य आवश्यकता होती है। कहना चाहिए कि उन नियमों के पालन पर ही व्रतों का समीचीन रूप से पालन हो सकता है । सहायक नियम व्रतों की रक्षा करते हैं और पुष्टि भी करते हैं। यहाँ प्रत्येक व्रत की रक्षा करने के लिए पांच-पाँच भावनाओं का इसी अभिप्राय से कथन किया गया है । सम्यक्-चारित्र अथवा पञ्चसमिति-गुप्तित्रयपवित्रितम् । चारित्रं सम्यक्चारित्र-मित्याहुमुनिपुङ्गवा ।। ३४ ।। अथवा पांच समितियों और तीन गुप्तियों से युक्त प्राचार सम्यक् .. चारित्र कहलाता है, ऐसा महामुनि अर्थात् तीर्थङ्कर भगवान् कहते हैं । टिप्पण-पहले अठारहवें श्लोक में सम्यक् चारित्र की व्याख्या की गई थी। यहां दूसरी व्याख्या बतलाई गई है। पहली व्याख्या मूलव्रतपरक है और इस दूसरी व्याख्या में उत्तर व्रतों का भी समावेश किया गया है । अहिंसा आदि पांच महाव्रत मूलवत कहलाते हैं और समिति-गुप्ति आदि उत्तर व्रत कहे जाते हैं। मूल गुणों और उत्तर गुणों का आपस में घनिष्ठ सम्बन्ध है। उत्तरगुणों का पालन किये विना सम्यक् प्रकार से मूल गुणों का पालन होना संभव नहीं है, और मूल गुणों के अभाव में उत्तर गुणों की कल्पना वैसी ही है जैसे मूल के विना वृक्ष की कल्पना ।। इस प्रकार मूल गुणों और उत्तर गुणों के सम्बन्ध को दृष्टि में रखते हुए दोनों व्याख्यानों में कोई अन्तर नहीं है, तथापि चारित्र जैसे अत्यन्त महत्त्वपूर्ण और व्यापक विषय की स्पष्टता के हेतु शास्त्रकार ने यहाँ दो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004234
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSamdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
PublisherRushabhchandra Johari
Publication Year1963
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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