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________________ प्रथम प्रकाश महाव्रतों की भावनाएं भावनाभिर्भावितानि, पञ्चभिः पञ्चभिः क्रमात् । __महाव्रतानि नो कस्य, साधयन्त्यव्ययं पदम् ।।२५।। . __ प्रत्येक महाव्रत की पाँच-पाँच भावनाएं हैं। उन भावनाओं से भावित-पुष्ट किये हुए महाव्रत किसे अक्षय पद ( मोक्ष ) प्रदान नहीं करते ? अर्थात् भावनाओं सहित महाव्रतों का पालन करने वाला अवश्य ही अजर-अमर पद प्राप्त करता है। मनोगुप्त्येषणादानेर्याभिः समितिभिः सदा। दृष्टान्नपानग्रहणेनाहिंसां भावयेत् सुधीः ।।२६।। इन पाँच भावनाओं से विवेकशील पुरुष को अहिंसा को भावित करना चाहिए-१.. मनोगुप्ति-मन के अशुभ व्यापारों का त्याग करना, २. एषणासमिति-निरवद्य अर्थात् सूझता अन्न-पानी आदि ग्रहण करना, ३. आदान समिति संयम के उपकरणों को उपयोग सहित उठाना-रखना, ४. ईर्या समिति-चलते समय जीव-जन्तु की रक्षा के लिए आगे की चार हाथ भूमि का अवलोकन करते हुए चलना, ५. दृष्टान्नपान-ग्रहण-अच्छी तरह देख-भालकर भोजन-पानी ग्रहण करना । अँधेरे में न ग्रहण करना और न खाना-पीना । हास्यलोभभयक्रोधप्रत्याख्यानै निरन्तरम् । .. आलोच्य भाषणेनापि, भावयेत्सूनृतव्रतम् ॥२७॥ . १. हँसी-मजाक का त्याग, २. लोभ का त्याग, ३. भय का त्याग, ४. क्रोध का त्याग, और ५. सदैव सोच-विचार कर बोलना, यह पाँच सत्य-महाव्रत की भावनाएं हैं। आलोच्यावग्रहयाञ्चाभीक्ष्णावग्रहयाचनम् । . एतावन्मात्रमेवैतदित्यवग्रह धारणम् ॥ २८ ।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004234
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSamdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
PublisherRushabhchandra Johari
Publication Year1963
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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