SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 102
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ योग - शास्त्र श्रदारिक शरीर सम्बन्धी काम - परित्याग से नव भेद होते हैं । दोनों को मिला देने पर ब्रह्मचर्य के अठारह भेद हो जाते हैं । कहीं-कहीं देवता, मनुष्य और तिर्यञ्च सम्बन्धी काम - भोगों के त्याग का कथन । उस कथन में और इस कथन में कोई अर्थभेद नहीं है । यहाँ 'प्रौदारिक' इस एक शब्द से ही मनुष्यों और तिर्यञ्चों को ग्रहण कर लिया गया है । १२ ५. अपरिग्रह - महाव्रत सर्वभावेषु मूर्च्छायास्त्यागः स्यादपरिग्रहः । यदसत्स्वपि जायेत, मूर्च्छया चित्तविप्लवः ॥ २४ ॥ समस्त पर-पदार्थों में मूर्च्छा ( श्रासक्ति) का अभाव ही अपरिग्रह कहलाता है । पदार्थों के विद्यमान न होने पर भी अगर उनमें मूर्छा - गृद्धि हो, तो चित्त में क्षोभ होता है । टिप्पण - तात्पर्य यह है कि किसी पदार्थ का पास में होना अथवा न होना परिग्रह और अपरिग्रह नहीं है, परन्तु मूर्च्छा का होना परिग्रह और न होना अपरिग्रह है । पदार्थ प्राप्त न हो, किन्तु उसमें श्रासक्ति हो तो भी वह परिग्रह हो जाता है। इसके विपरीत शरीर जैसी वस्तु के विद्यमान रहते हुए भी ममत्व न होने के कारण वह अपरिग्रह है । अतः परिग्रह का त्यागी वही है, जो पदार्थों के साथ-साथ उनसे सम्बन्धित श्रासक्ति को भी त्याग देता है । कहा भी है यद्वत्तुरगः सत्स्वप्याभरणभूषणेष्वनभिषक्तः । तद्वदुपग्रहवानपि न सङ्गमुपयाति निर्ग्रन्थः ॥ जैसे घोड़े को आभरण और भूषण पहना दिये जाते हैं, तो भी वह उन श्राभरणों और आभूषणों में प्रासक्त नहीं होता, उसी प्रकार धर्मोपकरण रखता हुआ भी साधु परिग्रही नहीं कहलाता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004234
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSamdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
PublisherRushabhchandra Johari
Publication Year1963
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy