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प्रथम प्रकाश
२. सत्य-महाव्रत
प्रियं पथ्यं वचस्तथ्यं, सूनृतव्रतमुच्यते ।
तत्तथ्यमपि नो तथ्यमप्रियं चाहितं च यत् ।। २१ ।। प्रिय, पथ्य (हितकर) और तथ्य (यथार्थ) वचन बोलना सत्यव्रत कहलाता है। जो वचन अप्रिय है या अहितकर है, वह तथ्य होने पर भी सत्य नहीं है। ३. अस्तेय-महावत
अनादानमदत्तस्यास्तेयव्रत - मुदीरितम् ।
बाह्या प्राणा नृणामर्थो, हरता तं हता हिते ॥ २२ ॥ स्वामी के द्वारा दिये बिना किसी वस्तु को ग्रहण न करना अस्तेय व्रत कहा गया है। धन मनुष्यों का बाह्य प्राण है, अतः धन को हरण करने वाला प्राणों का ही हरण करता है। क्योंकि धन का हरण होने पर धनी को इतनी व्यथा होती है, जितनी प्राणों का हरण होने पर । अतः अदत्तादान हिंसा के समान पाप है। ४. ब्रह्मचर्य-महाव्रत
. दिव्यौदारिककामानां, कृतानुमतिकारितैः । - मनोवाक्कायतस्त्यागो, ब्रह्माष्टादशधा मतम् ।।२३।।
देवों सम्बन्धी और औदारिक शरीर धारियों ( मनुष्यों एवं तिर्यञ्चों ) सम्बन्धी कामों का कृत, कारित और अनुमोदन से, मन वचन और काय से त्याग करना-अठारह प्रकार का ब्रह्मचर्य है।
टिप्पण-दिव्य कामों का मन से स्वयं सेवन न करना, दूसरों से सेवन • न कराना और सेवन करने वाले का अनुमोदन न करना; इसी प्रकार
वचन से और काय से सेवन करने का त्याग करना-नौ प्रकार का ब्रह्मचर्य है । जैसे दिव्य काम-त्याग से नव भेद सिद्ध होते हैं, उसी प्रकार
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