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________________ योग-शास्त्र गुरु के उपदेश का निमित्त मिलने पर जिस सम्यक्त्व. की प्राप्ति होती है—वह अधिगमज सम्यग्दर्शन कहा जाता है। . निसर्गज और अधिगमज-दोनों प्रकार के सम्यग्दर्शनों में अन्तरंग कारण अनन्तानुबंधी चतुष्क एवं दर्शन मोहनीय का उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम समान है। किन्तु, बाह्य निमित्त अलग-अलग हैं। बाह्य निमित्तों की भिन्नता के कारण ही सम्यग्दर्शन के दो भेद किये गये हैं। सम्यक चारित्र का स्वरूप सर्वसावद्ययोगानां, त्यागश्चारित्रमिष्यते । कीर्तितं तदहिंसादि-वतभेदेन पञ्चध्रा ॥ १८ ॥ सब प्रकार के सावद्य (पापमय) योगों का त्याग करना सम्यक् चारित्र कहलाता है। अहिंसा आदि व्रतों के भेद से वह पाँच प्रकार का है। व्रतों के भेद अहिंसासूनृतास्तेय - ब्रह्मचर्यापरिग्रहाः । __ पञ्चभिः पञ्चभिर्युक्ता भावनाभिविमुक्तये ॥१९॥ व्रत रूप चारित्र के पाँच भेद हैं-१. अहिंसा, २. सत्य, ३. अस्तेय, ४. ब्रह्मचर्य, और ५. अपरिग्रह । यह पाँचों पाँच-पांच भावनाओं से युक्त होकर मोक्ष के कारण होते हैं । १. अहिंसा-महाव्रत न यत्प्रमादयोगेन, जीवितव्यपरोपणम् । त्रसानां स्थावराणाञ्च, तदहिसाव्रतं मतम् ॥ २० ॥ प्रमाद के वशीभूत होकर त्रस (द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय) अथवा स्थावर (पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और वनस्पति काय के) प्राणियों के प्राणों का हनन न करना अहिंसावत है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004234
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSamdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
PublisherRushabhchandra Johari
Publication Year1963
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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