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________________ है' इस प्रकार से वस्तु-मात्र के ग्राही को दर्शन और 'वह रूप है' इस प्रकार वस्तुविशेष के ग्राही को अवग्रह ज्ञान कहा है। यहाँ यह बतला देना उचित होगा कि सभी जैनेतर दार्शनिक यह मानते हैं कि सबसे पहले इन्द्रिय और विषय का सन्निकर्ष होता है फिर निर्विकल्पक ज्ञान होता है। मीमांसक कुमारिल भट्ट लिखते हैं कि सबसे प्रथम आलोचना ज्ञान होता है। वह निर्विकल्पक होता है, शुद्ध वस्तु से जन्य होता है तथा मूक शिशु के ज्ञान के सदृश होता है। आचार्य जिनभद्र ने भी अवग्रह की चर्चा करते हुए आलोचनपूर्वक अवग्रहज्ञान के होने की चर्चा की है, जिसका वर्णन पहले कर आये हैं और उन्होंने आलोचना ज्ञान को व्यंजनावग्रह माना है; क्योंकि इन्द्रिय और अर्थ का सम्बन्ध होने पर आलोचना ज्ञान होता है और तभी व्यंजनावग्रह माना गया है, किन्तु यदि आलोचना-ज्ञान में सामान्य अर्थ का ग्रहण होता है तो वह अर्थावग्रह से भिन्न नहीं है तथा अकलंकदेव की उक्त चर्चा में मूक शिशु के प्रथम दर्शन को अवग्रह से विलक्षण सिद्ध करके अवग्रह से पहले दर्शन की सत्ता सिद्ध की गयी है। अतः कुमारिलं के आलोचना-ज्ञान को अकलंकदेव ने दर्शन माना है। इसी तरह बौद्धों के निर्विकल्पक ज्ञान को भी अकलंकदेव ने प्रत्यक्ष ज्ञान न मानकर दर्शन माना है। सारांश यह है कि जैनदर्शन में सविकल्पक ज्ञान से पहले किसी निर्विकल्पक ज्ञान का अस्तित्व नहीं माना गया, जबकि अन्य दर्शनों में माना गया। अतः अकलंकदेव ने उसकी तुलना दर्शन से की, क्योंकि जैनदर्शन में ज्ञान को दर्शनपूर्वक माना है तथा उसका विषय सत्ता-सामान्य है। अकलंकदेव की इस मान्यता को भी उनके उत्तराधिकारी दोनों परम्पराओं के दार्शनिकों ने स्वीकार किया। 2. ईहा-अवग्रह के द्वारा होने वाला ज्ञान इतना कमजोर होता है कि इसके बाद संशय हो सकता है, इसलिए संशयापन्न अवस्था को दूर करने के लिए या पिछले ज्ञान को व्यवस्थित करने के लिए जो ईहन, विचारणा या गवेषणा होती है, वह ईहा ज्ञान है। अवग्रह से होने वाले ज्ञान के बाद उस पदार्थ को विशेष रूप से जानने कि लिए जब यह शंका हुआ करती है कि यह मनुष्य तो है, परन्तु दाक्षिणात्य है अथवा औदीच्य है? तब उस शंका को दूर करने के लिए उसके वस्त्र आदि की तरफ दृष्टि देने से यह ज्ञान होता है कि यह दाक्षिणात्य होना चाहिए, इसी को ईहा कहते हैं। ___ आशय यह है कि अवग्रह से गृहीत अर्थ में विशेष जानने की आकांक्षा रूप ज्ञान को ईहा कहते हैं। जैसे–'यह पुरुष है' इस प्रकार यदि 'पुरुष' का अवग्रह ज्ञान हुआ तो 'यह पुरुष' किस देश का है, किस उम्र का है ? आदि जानने की आकांक्षा ईहा है। श्वेताम्बरीय मान्यता के अनुसार, शब्द को सुनकर 'यह शब्द होना तत्त्वाधिगम के उपाय :: 97 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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