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________________ चाहिए' इस प्रकार की जिज्ञासा का होना ईहा है। ईहा ज्ञान संशय रूप नहीं है। एक वस्तु में परस्पर विरुद्ध अनेक अर्थों के ज्ञान का नाम संशय है। यह संशय अवग्रह के पश्चात् और ईहा से पहले होता है। संशय के दूर होने पर जब ज्ञान निश्चय के अभिमुख होता है तो उसी को ईहा कहते हैं। जैसे-पुरुष का अवग्रह होने पर यह दक्षिणात्य है अथवा औदीच्य है? इत्यादि संशय होता है। इसके पश्चात् जब वह निश्चयोन्मुख होता है कि अमुक होना चाहिए, वह ईहा है। यदि यह कहा जाय कि ईहा-ज्ञान में विशेष का निश्चय नहीं होता और संशय भी अनिश्चयात्मक है, ऐसी अवस्था में दोनों में क्या भेद है ? इसका समाधान किया गया है कि संशय पहले होता है और ईहा बाद में उत्पन्न होती है। अतएव दोनों भिन्न-भिन्न हैं। इसके अतिरिक्त संशय में दोनों पलड़े बराबर होते हैं, दक्षिणी और पश्चिमी की दोनों कोटियाँ तुल्य बल वाली होती हैं, ईहा में एक पलड़ा भारी हो जाता है। यह 'दक्षिणी होना चाहिए' इस प्रकार का ज्ञान एक ओर को झुका रहता है। अतएव संशय और ईहा दोनों एक नहीं है। ईहा, ऊहा, तर्क, परीक्षा, विचारणा और जिज्ञासा ये सब शब्द एक ही अर्थ के वाचक हैं। अर्थात् ईहा शब्द के पर्यायवाची हैं।'' 3. अवाय-विशेष धर्मों को जानकर यथार्थ वस्तु का निर्णय होना अवाय है। अथवा अवग्रह तथा ईहा के द्वारा जाने हुए पदार्थ के विषय में यह समीचीन है' अथवा 'असमीचीन है इस तरह से गुण-दोषों का विचार करने के लिए जो निश्चय रूप ज्ञान की प्रवृत्ति होती है, उसको अपाय या अवाय कहते हैं। जैसे'यह मनुष्य दक्षिणी होना चाहिए' इतना ज्ञान ईहा द्वारा हो चुका था, उसमें विशेष का निश्चय होना अर्थात् उस मनुष्य के निकट आजाने पर उसकी बातचीत (बोलचाल) के सुनने पर यह दृढ़ निश्चय होता है कि यह 'दाक्षिणात्य ही है' इस प्रकार के ज्ञान को अपाय कहते हैं। अपाय, अपगम, अपनोद, अपव्याध, अपेत, अपगत, अपविद्ध और अपनुत्त-ये सभी शब्द एक अर्थ के वाचक हैं अर्थात् अवाय शब्द के पर्याय वाची है। यहाँ अवाय और अपाय दोनों शब्दों का प्रयोग किया गया है। श्वेताम्बर सम्मत तत्त्वार्थ सूत्र में अपाय' शब्द का प्रयोग है और दिगम्बर सम्मत तत्त्वार्थ सूत्र में 'अवाय' शब्द का प्रयोग है। आचार्य अकलंकदेव ने अपने राजवार्तिक में यह चर्चा की है कि यह अपाय शब्द है अथवा अवाय? इसका समाधान करते हुए उन्होंने कहा है कि दोनों ही शब्द ठीक हैं, एक के प्रयोग से दूसरे का ग्रहण स्वयं हो जाता है। जैसे जब 'यह दाक्षिणात्य नहीं है' इस तरह यह शब्द अपाय अर्थात् 98 :: जैनदर्शन में नयवाद Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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