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________________ स्पर्शन इन्द्रियाँ क्रम से स्पृष्ट और अस्पृष्ट गन्ध, रस और स्पर्श को जानती हैं।3 युक्ति से चक्षु की अप्राप्यकारिता 'आँख' में लगे हुए अंजन' के दृष्टान्त द्वारा ऊपर निर्दिष्ट कर दी गयी है । दर्शन और अवग्रह में भेद - दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्पराओं में दर्शन को अनाकार तथा सामान्य-ग्राही माना है तथा ज्ञान को साकार और विशेषग्राही माना है। पहले दर्शन होता है फिर ज्ञान होता है, किन्तु दिगम्बर परम्परा केवलज्ञानी के दर्शन और ज्ञान एक साथ मानती है। आचार्य पूज्यपाद 74 कहते हैं कि विषय और विषयी का सन्निपात होने पर दर्शन होता है। अकलंकदेव ने भी उसको स्पष्ट करते हुए कहा है कि इन्द्रिय और अर्थ का योग होने पर सत्ता सामान्य का दर्शन होता है। अर्थात् वे दर्शन का विषय बतला देते हैं। यही सन्मात्र दर्शन अनन्तर समय 'में' अर्थाकार विकल्पधी' हो जाता है। अर्थात् अर्थ के आकार का निर्णायक हो जाता है, वही अवग्रह है। दर्शन और अवग्रह के भेद की चर्चा करते हुए अकलंकदेव ‘तत्त्वार्थवार्तिक' में कहते हैं " - 'चक्षु' के द्वारा 'कुछ है' इस प्रकार के निराकार अवलोकन को दर्शन कहतें हैं। जैसे - तत्काल जन्मे हुए बालक को आँख खोलते ही जो प्रथम अवलोकन होता है, जिसमें वस्तु के विशेष धर्मों का भान नहीं होता, वह दर्शन है, वैसे ही सभी को पहले दर्शन होता है उसके पश्चात् दो-तीन समय तक आँखें टिमटिमाने पर 'यह रूप है' इस प्रकार विशेषता को लिए हुए अवग्रह होता है आँखें खोलते ही बाल शिशु को जो दर्शन होता है यदि वह अवग्रह का सजातीय होने से ज्ञान है तो वह मिथ्या ज्ञान है अथवा सम्यग्ज्ञान है ? यदि मिथ्याज्ञान है तो वह संशय है। या विपर्यय है अथवा अनध्यवसाय है ? वह संशय या विपर्यय ज्ञान तो हो नहीं सकता; क्योंकि बच्चे की चेष्टाएँ सम्यग्ज्ञानमूलक देखी जाती हैं तथा प्रथम ही संशय और विपर्यय हो भी नहीं सकते। जब कोई सीप और चाँदी को देख लेता है, उसके पश्चात् ही उसे सामने पड़ी हुई वस्तु में सीप और चाँदी का भ्रम होता है तथा वह अनध्यवसाय भी नहीं है; क्योंकि उसे वस्तु मात्र का दर्शन हो रहा है। अतः बच्चे का प्राथमिक अवलोकन मिथ्याज्ञान तो नहीं है और न सम्यग्ज्ञान ही है, क्योंकि उसमें वस्तु के आकार का बोध नहीं है। अतः यह मानना पड़ता है कि अवग्रह से पहले दर्शन होता है। इस तरह अकलंकदेव ने अवग्रह और दर्शन में भेद सिद्ध करते हुए 'कुछ 96 :: जैनदर्शन में नयवाद Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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