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गया है। जैसे-मिट्टी के नये अति सूक्ष्म सकोरे पर जल के दो-तीन बिन्दु डाले जायें तो तुरन्त ही सकोरा उन्हें सोख लेता है और वह गीला नहीं होता किन्तु बारबार जलबिन्दु डालने पर एक समय ऐसा आता है कि वह सकोरा धीरे-धीरे गीला हो जाता है, और वह गीला दिखाई देने लगता है। इससे पूर्व भी सकोरा में वे जल कण थे अवश्य किन्तु दृष्टि में आने लायक नहीं थे, उनकी मात्रा अति अल्प थी। जब जल की मात्रा बढ़ी और सकोरा की सोखने की शक्ति कम हुई तब कहीं आर्द्रता दिखाई देने लगी और जो जल सर्वप्रथम सकोरे में समा गया था वही अब उसके ऊपर के तल में इकट्ठा होने लगा और स्पष्ट दिखाई दिया। इसी तरह जब किसी सुषुप्त व्यक्ति को पुकारा जाता है तब यह शब्द उसके कान में गायब सा हो जाता है। दो-चार बार पुकारने से उसके कान में जब पौद्गलिक शब्दों की मात्रा काफी रूप में भर जाती है तब जलकणों से पहले पहल आर्द्र होने वाले सकोरे की तरह उस सुषुप्त व्यक्ति के कान भी शब्दों से परिपूरित होकर उनको सामान्य रूप से जानने में समर्थ होते हैं कि 'यह क्या है?' यही सामान्य ज्ञान है जो शब्द को पहले पहल स्पष्टतया जानता है। इसके बाद विशेष ज्ञान का क्रम प्रारम्भ होता है इस तरह स्पर्श आदि इन्द्रियों में ग्रहण किया हुआ स्पर्श अथवा श्रोत्र आदि इन्द्रियों में आया हुआ शब्द अथवा गन्ध आदि दो-चार-छह क्षणों तक स्पष्ट नहीं होते, किन्तु बार-बार ग्रहण करने पर स्पष्ट हो जाते हैं। अतः स्पष्ट ग्रहण से पहले व्यंजनावग्रह होता है। पश्चात् अर्थावग्रह होता है। किन्तु ऐसा कोई नियम नहीं है कि जैसे अवग्रह-ज्ञान दर्शनपूर्वक ही होता है। वैसे ही अर्थावग्रह भी व्यंजनावग्रहपूर्वक ही हो, क्योंकि अर्थावग्रह तो पाँचों ही इन्द्रियों और मन से होता है, किन्तु व्यंजनावग्रह चक्षु और मन से नहीं होता है। इन को छोड़कर शेष चार ही इन्द्रियों से होता है। आशय यह है कि जो इन्द्रियाँ अपने विषय को उससे सम्बद्ध या सट कर जानती हैं उन्हीं से व्यंजनावग्रह होता है। ऐसी इन्द्रियाँ केवल चार हैं-स्पर्शन, रसना, घ्राण और श्रोत्र। ये चारों इन्द्रियाँ अपने विषय से सम्बद्ध होने पर ही स्पर्श, रस, गन्ध और शब्द को ग्रहण करती हैं, किन्तु चक्षु और मन अपने विषय से दूर रहकर ही उसे जानते हैं। तभी तो जो वस्तु आँख के अत्यन्त निकट होती है उसे वह नहीं जानती। जैसे-आँख में लगा हुआ अंजन। इसी से जैनदर्शन में चक्षु को अप्राप्यकारी माना है। चक्षु की अप्राप्यकारिता आगम और युक्ति से सिद्ध होती है। आगम से यथा-'श्रोत्र स्पृष्ट शब्द को सुनता है और अस्पृष्ट . शब्द को भी सुनता है, नेत्र अस्पृष्ट रूप को ही देखता है तथा घ्राण, रसना और
तत्त्वाधिगम के उपाय :: 95
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