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________________ सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष भी दो प्रकार का है-1.इन्द्रिय सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष और 2. अनिन्द्रिय सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष। (1) इन्द्रिय सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष-स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्णइन पाँच इन्द्रियों और मन की सहायता से उत्पन्न होने वाला ज्ञान इन्द्रिय सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहलाता है। इसी को आचार्य उमास्वामी ने मतिज्ञान कहा है। - (2) अनिन्द्रिय सांव्यहारिक प्रत्यक्ष-अनिन्द्रिय सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष जैसा कि इस के नाम से अभिव्यक्त होता है, अनिन्द्रिय अर्थात्-केवल मन से उत्पन्न होने वाला ज्ञान अनिन्द्रिय सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष है। इन्द्रिय सांव्यहारिक प्रत्यक्ष या मतिज्ञान को चार भागों में विभक्त किया गया है-1.अवग्रह, 2. ईहा, 3. अवाय और 4. धारणा . ___ 1. अवग्रह-योग्य क्षेत्र में स्थित पदार्थ के साथ इन्द्रिय का सम्बन्ध होने पर सबसे पहले दर्शन होता है, जो निर्विकल्पक अथवा निराकार होता है और दर्शन के बाद उस पदार्थ का जो प्रथम ग्रहण होता है, जो सविकल्पक अथवा साकार हुआ करता है, उसे अवग्रह कहते हैं। जैसे-चक्षु इन्द्रिय द्वारा 'यह शुक्ल रूप है' ऐसा ग्रहण होना अवग्रह है। तात्पर्य यह है कि चक्षु आदि इन्द्रियों तथा घटादि पदार्थों का सम्पर्क होते ही प्रथम दर्शन होता है। यह दर्शन सत्ता-मात्र या सामान्य (कुछ है) को ग्रहण करता है। पीछे वही दर्शन वस्तु के आकार आदि का निर्णय होने पर अवग्रह ज्ञान रूप परिणत हो जाता है। जैसे—'यह मनुष्य है' यह ज्ञान होना अवग्रह है। अवग्रह, ग्रहण, आलोचना और अवधारण-ये एक ही अर्थ के वाचक शब्द हैं। अर्थात् अवग्रह के पर्यायवाची हैं। अवग्रह के भी दो भेद हैं- 1. व्यंजनावग्रह और 2. अर्थावग्रह। अव्यक्त, अस्पष्ट या अप्रकट पदार्थ के ग्रहण को व्यंजनावग्रह कहते हैं और व्यक्त, स्पष्ट या प्रकट पदार्थ के ग्रहण को अर्थावग्रह कहते हैं । अथवा जो प्राप्त अर्थ के विषय में होता है उसको व्यंजनावग्रह कहते हैं और जो अप्राप्त अर्थ के विषय में होता है उसको अर्थावग्रह कहते हैं। अर्थात्-इन्द्रियों से प्राप्त (सम्बन्ध) अर्थ को व्यंजन कहते हैं और अप्राप्त (असम्बन्ध) अर्थ को अर्थ कहते हैं और इनके ज्ञान को क्रम से व्यंजनावग्रह और अर्थावग्रह कहते हैं। इस प्रकार व्यंजन शब्द का अर्थ 'प्राप्ति' भी किया गया है इसलिए इसका ऐसा अर्थ समझना चाहिए कि इन्द्रियों से सम्बन्ध होने पर भी जबतक प्रकट न हो तब तक उसे व्यंजन कहते हैं। और प्रकट होने पर 'अर्थ' कहते हैं। इन दोनों का भेद एक दृष्टान्त के द्वारा स्पष्ट किया 94 :: जैनदर्शन में नयवाद Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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