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________________ अकलंक का यह प्रत्यक्ष लक्षण इतना लोकप्रिय हुआ कि इनके उत्तरवर्ती सभी दिगम्बर और श्वेताम्बर जैनाचार्यों ने तथा जैनेतर दार्शनिकों ने इस लक्षण को बिना किसी विरोध के सहर्ष स्वीकार किया । जिस प्रकार आचार्य अकलंक ने 'विशद ज्ञान' को प्रत्यक्ष कहा है उसी प्रकार बौद्ध भी 'विशद ज्ञान' को प्रत्यक्ष कहते हैं, किन्तु वे केवल निर्विकल्पक ज्ञान को ही प्रत्यक्ष की सीमा में रखते हैं । यद्यपि आचार्य सिद्धसेन के लक्षण में निर्दिष्ट 'अपरोक्ष' का वेदान्त के और आचार्य अकलंक के प्रत्यक्ष लक्षण में निर्दिष्ट 'विशद' का बौद्ध के प्रत्यक्षलक्षण से अधिक सामीप्य है, फिर भी उसके विषय ग्राहक स्वरूप में मौलिक भेद है। वेदान्त के मतानुसार पदार्थ का प्रत्यक्ष अन्तःकरण की वृत्ति के माध्यम से होता है । अन्तःकरण दृश्यमान पदार्थ का आकार धारण करता है। आत्मा अपने शुद्ध साक्षी चैतन्य से उसे प्रकाशित करता है, तब प्रत्यक्ष ज्ञान होता है । जैनदर्शन के अनुसार प्रत्यक्ष में ज्ञान और ज्ञेय के बीच दूसरी कोई शक्ति नहीं होती । बौद्ध प्रत्यक्ष को निर्विकल्पक मानते हैं । जैनों के अनुसार निर्विकल्पक बोध निर्णायक नहीं होता, इसलिए यह प्रत्यक्ष तो क्या प्रमाण ही नहीं बनता । जैनदर्शन के अनुसार आत्ममात्र सापेक्ष ज्ञान प्रत्यक्ष तथा जिस ज्ञान में इन्द्रिय, मन, प्रकाशादि पर-साधनों की अपेक्षा होती है वह ज्ञान परोक्ष है । प्रत्यक्ष आत्मजन्य या आत्मीक ज्ञान है और परोक्ष इन्द्रियजन्य ज्ञान है, प्रत्यक्ष स्वाश्रित और परोक्ष पराश्रित, प्रत्यक्ष इन्द्रिय निरपेक्ष और परोक्ष इन्द्रिय सापेक्ष, प्रत्यक्ष आत्माधीन और परोक्ष इन्द्रियाधीन, प्रत्यक्ष आत्मविशुद्धि या आत्मनैर्मल्यजन्य और परोक्ष इन्द्रियनैर्मल्यजन्य ज्ञान है। इस प्रकार प्रत्यक्ष और परोक्ष की ये परिभाषाएँ जैनदर्शन की भारतीय दर्शन को एक विशेष देन है। प्रत्यक्ष के भेद - उपरि विवेचित प्रत्यक्ष के दो भेद हैं- 1. सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष, 2. पारमार्थिक या मुख्य प्रत्यक्ष 1. सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष - इन्द्रिय और मन ही सहायता से होने वाले एकदेश निर्मल ज्ञान को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहते हैं । 4 'सांव्यवहारिक' शब्द का व्युत्पत्तिपरक अर्थ भी किया गया है - सम् अर्थात् समीचीन प्रवृत्ति - निवृत्तिरूप "व्यवहार को संव्यवहार कहते हैं और उसमें होने वाले ज्ञान को सांव्यवहारिक कहते हैं जैसा कि ऊपर कहा गया है, आचार्य अकलंक ने प्रत्यक्ष का यह भेद लोक व्यवहार का समन्वय करने के लिए स्वीकार किया है। यही भाव इस व्युत्पत्तिपरक अर्थ में अभिव्यक्त होता है । Jain Education International तत्त्वाधिगम के उपाय :: 93 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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