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________________ स्पष्ट और विशिष्ट ज्ञान होता है, उसे विशदता या वैशद्य कहते हैं।" ज्ञान की इस विशदता या स्पष्टता को हम एक उदाहरण द्वारा समझ सकते हैं-जैसे किसी एक बालक को उसके पिता ने अग्नि का ज्ञान शब्द द्वारा करा दिया। बालक ने शब्द (आगम) से अग्नि जान ली। इसके पश्चात् फिर धूम दिखाकर अग्नि का ज्ञान करा दिया। बालक ने अनुमान से अग्नि जान ली। तदनन्तर बालक के पिता ने जलता हुआ अंगारा उठा लिया और बालक के सामने रखकर कहा-देखो, यह अग्नि है। इस प्रकार यह प्रत्यक्ष से अग्नि का जानना कहलाया है। इस उदाहरण में पहले दो ज्ञानों की अपेक्षा अन्तिम ज्ञान अर्थात् प्रत्यक्ष द्वारा अग्नि का विशेष वर्ण, स्पर्श आदि का जो निर्मल ज्ञान होता है, बस यही ज्ञान की विशदता या स्पष्टता है। ऐसी विशदता जिस ज्ञान में पायी जाती है वह ज्ञान प्रत्यक्ष कहलाता है। इस प्रकार आचार्य अकलंक की व्याख्या के अनुसार 'विशद ज्ञान' प्रत्यक्ष है। आचार्य सिद्धसेन दिवाकर के प्रत्यक्ष लक्षण के अपरोक्ष' पद के स्थान पर 'विशद' पद को लक्षण में स्थान देने का एक कारण है। आचार्य अकलंक की प्रमाणव्यवस्था में व्यवहारदृष्टि का भी आश्रयण है। इसके अनुसार प्रत्यक्ष के दो भेद होते हैमुख्य और सांव्यवहारिक। मुख्य प्रत्यक्ष वह है जो अपरोक्षतया अर्थ ग्रहण करे। सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष में अर्थ का ग्रहण इन्द्रिय के माध्यम से होता है, उसमें 'अपरोक्षतया' अर्थग्रहण' लक्षण नहीं बनता। इसलिए दोनों की संगति करने के लिए 'विशद' शब्द की योजना करनी पड़ी। आचार्य अकलंक ने अपने इस प्रत्यक्ष-लक्षण द्वारा दार्शनिक जगत् की एक बहुत बड़ी समस्या का समाधान किया। समस्या थी इन्द्रियजन्य ज्ञान को परोक्ष मानना। किसी भी जैनेतर दार्शनिक ने इन्द्रियजन्य ज्ञान को परोक्ष नहीं माना, सब उसे प्रत्यक्ष ही मानते हैं, किन्तु जैनदर्शन इन्द्रियों से होने वाले ज्ञान को परोक्ष मानता है। जबकि इतर दार्शनिक उसे प्रत्यक्ष कहते थे। यह एक लोक व्यावहारिक समस्या थी। इसका समाधान इन्होंने बड़े सुन्दर तार्किक ढंग से किया। इन्होंने प्रत्यक्ष के दो भेद किये-1. सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष और 2. पारमार्थिक या मुख्य प्रत्यक्ष 2 लोक में जिस इन्द्रियजन्य ज्ञान को प्रत्यक्ष कहा जाता है वह व्यवहार से तथा देशतः विशद (निर्मल) होने से उसे उन्होंने सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष के रूप में स्वीकार किया। इस प्रकार लोकव्यवहार का निर्वाह करने के लिए उन्होंने सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष की कल्पना की, जो अपने ही अनोखे ढंग की थी। इससे इन्होंने इन्द्रिय और मन की सहायता से होने वाले मतिज्ञान को परोक्ष की परिधि में से निकाल कर तथा सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष नाम देकर प्रत्यक्ष की परिधि में सम्मिलित कर दिया। इस अनूठी कल्पना से उक्त समस्या का पूर्ण समाधान हो गया। इस प्रकार आचार्य 92 :: जैनदर्शन में नयवाद Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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