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________________ कहलाता है 54 विचारणीय यह है कि इन्द्रियों से होने वाला ज्ञान प्रत्यक्ष, जैसा कि जैनेतर दर्शन मानते हैं, नहीं माना जा सकता है; क्योंकि इस प्रकार के ज्ञान से आत्मा में सर्वज्ञता नहीं आ सकती है, उसका अभाव हो जाएगा। अतएव अतीन्द्रिय ज्ञान परनिरपेक्ष होने के कारण प्रत्यक्ष है । जो ज्ञान सर्वथा स्वावलम्बी है, स्वतन्त्र आत्मा के आश्रित है, पर निरपेक्ष है, जिसमें बाह्य साधनों की आवश्यकता नहीं है वह प्रत्यक्ष है, और जिसमें इन्द्रिय, मन, प्रकाशादि की अपेक्षा या आवश्यकता रहती है, वह परोक्ष है, क्योंकि इन्द्रिय, मन, प्रकाश और गुरूपदेशादि पर कहे जाते हैं, इन पर अर्थात् बाह्य निमित्तों की अपेक्षा से 'अक्ष' अर्थात् आत्मा के जो ज्ञान उत्पन्न होता है उसे परोक्ष कहते हैं 5 आचार्य कुन्दकुन्द और उमास्वामी के उत्तरवर्ती आचार्यों ने तार्किक दृष्टि से भी प्रत्यक्ष और परोक्ष के लक्षण किये हैं । आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने अपरोक्ष रूप से अर्थ को ग्रहण करने वाले ज्ञान को प्रत्यक्ष और इससे भिन्न ज्ञान को परोक्ष कहा है ।" इस लक्षण में 'अपरोक्ष' शब्द विशेष महत्त्व का है। नैयायिक 'इन्द्रिय' और अर्थ के सन्निकर्ष से उत्पन्न ज्ञान' को प्रत्यक्ष मानते हैं।” आचार्य सिद्धसेन ने 'अपरोक्ष' शब्द के द्वारा उससे असहमति प्रकट की है। इन्द्रिय के माध्यम से होने वाला ज्ञान आत्मा (प्रमाता) के साक्षात् नहीं होता, इसलिए वह प्रत्यक्ष नहीं है। ज्ञान की प्रत्यक्षता के लिए अर्थ और उसके बीच अव्यवधान होना जरूरी है। आचार्य अकलंकदेव ने परमार्थतः स्पष्ट, साकार, द्रव्यपर्यायात्मक और सामान्य - विशेषात्मक अर्थ को जानने वाले और आत्मवेदी ज्ञान को प्रत्यक्ष कहा है इन्होंने लघीयस्त्रय में 'विशद ज्ञान' को भी प्रत्यक्ष कहा है ।" अर्थात् जो ज्ञान परमार्थ रूप से विशद (निर्मल) और स्पष्ट होता है उसे प्रत्यक्ष कहते हैं । इन्होंने आगे वैशद्य (विशदता या निर्मलता) का लक्षण करते हुए कहा है - अनुमानादि परोक्ष प्रमाणों की अपेक्षा पदार्थ के वर्ण, आकारादि के विशेष प्रतिभासन को वैशद्य कहते है तात्पर्य यह है कि जिस ज्ञान में किसी अन्य ज्ञान की सहायता अपेक्षित न हो वह ज्ञान विशद कहलाता है । जिस तरह अनुमानादि परोक्षज्ञान अपनी उत्पत्ति में लिंगज्ञान, व्याप्तिस्मरण आदि की अपेक्षा रखते हैं। उस तरह प्रत्यक्ष अपनी उत्पत्ति में किसी अन्य ज्ञान की अपेक्षा नहीं रखता। यही अनुमानादि से प्रत्यक्ष में अतिरेक (अधिकता) है। दूसरे शब्दों में, अन्य ज्ञान के व्यवधान से रहित जो निर्मल, तत्त्वाधिगम के उपाय :: 91 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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