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को प्रत्यक्ष लक्षण मानने पर इन्द्रियों में से चक्षुरिन्द्रिय पदार्थों से सम्बद्ध होकर (सटकर) उनके रूपादि का ज्ञान नहीं कराती, किन्तु उनसे दूर स्थित होकर ही उनका ज्ञान कराती है । यह हम स्पष्ट ही देखते हैं । इस प्रकार यह लक्षण अव्याप्ति दोष से दूषित सिद्ध होता है । इसी प्रकार उक्त लक्षण के मानने पर आप्त के प्रत्यक्ष ज्ञान का अभाव प्राप्त होता है; क्योंकि आप्त के इन्द्रिय या इन्द्रियार्थ सन्निकर्षपूर्वक पदार्थज्ञान नहीं होता । यदि उसके भी इन्द्रियपूर्वक ही ज्ञान माना जाय तो उसको सर्वज्ञ कैसे माना जा सकता है ? यदि यह कहा जाए कि उसको मानस प्रत्यक्ष होता है, उससे समस्त पदार्थों को जान लेता है, तो यह भी ठीक नहीं, क्योंकि मन के प्रयत्न से ज्ञान की उत्पत्ति मानने पर भी सर्वज्ञत्व का अभाव ही सिद्ध होता है। यदि पुनः यह कहा जाए कि योगी प्रत्यक्ष नाम का एक अन्य दिव्यज्ञान है, जैसा कि ऊपर कहा गया है उससे योगीजन इन्द्रियार्थ सन्निकर्ष के बिना भी भूत, भविष्यत्, सूक्ष्म, व्यवहित, विप्रकृष्ट आदि सभी वस्तुओं को जान सकते है. तो भी उनमें प्रत्यक्षता नहीं बनती, क्योंकि वह इन्द्रियों के निमित्त से नहीं होता है । जिसकी प्रवृत्ति प्रत्येक इन्द्रिय से होती है वह प्रत्यक्ष है ।" ऐसा सभी वैदिक दर्शनों ने स्वीकार भी किया है। इस प्रकार उक्त लक्षण निर्दोष सिद्ध नहीं होता है ।
जैनदर्शनसम्मत प्रत्यक्ष-परोक्ष लक्षण - प्रत्यक्ष प्रमाण - जैनदर्शन के प्रमुख आचार्य कुन्दकुन्द ने प्रत्यक्ष और परोक्ष का लक्षण करते हुए कहा है—'पर अर्थात् इन्द्रिय, मन, प्रकाशादि की अपेक्षा से रहित आत्म मात्र सापेक्ष पदार्थज्ञान को प्रत्यक्ष कहते हैं और इन्द्रिय, मन, प्रकाशादि पर साधनों की अपेक्षा से होने वाले पदार्थज्ञान को परोक्ष कहते हैं 1
इसी प्रकार आचार्य कुन्दकुन्द के भाष्यकार अमृतचन्द्राचार्य ने भी प्रत्यक्ष और परोक्ष का यही लक्षण किया है । 2
आचार्य कुन्दकुन्द के पश्चात् उमास्वामी तथा उनके भाष्यकार अकलंकदेव, पूज्यपाद आदि ने भी प्रत्यक्ष और परोक्ष के व्युत्पत्तिपरक लक्षण किये हैं। 'प्रत्यक्ष' शब्द 'प्रति' और 'अक्ष' इन शब्दों के मेल से बना है। 'अक्ष' शब्द का अर्थ आत्मा और इन्द्रिय है, किन्तु यहाँ 'अक्ष' शब्द का अर्थ आत्मा लिया गया है, अतः जो ज्ञान इन्द्रियादि की अपेक्षा के बिना केवल आत्मा के प्रति ही नियत होता है उसे प्रत्यक्ष कहते हैं | 3
इसी प्रकार ‘अक्ष' व्याप् और ज्ञा- ये धातुएँ एकार्थ वाचक हैं। इसलिए 'अक्ष' का अर्थ आत्मा होता है। इस प्रकार क्षयोपशम वाले या आवरणरहित केवल आत्मा के प्रति जो नियत है अर्थात् जो ज्ञान बाह्य इन्द्रियादि की अपेक्षा से न होकर केवल क्षयोपशमवाले या आवरण रहित आत्मा से होता है वह प्रत्यक्ष ज्ञान
90 :: जैनदर्शन में नयवाद
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