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________________ के सम्बन्ध में दो प्रकार की मान्यताएँ प्रचलित हैं। अनेक बौद्ध विद्वान् अप्रामाण्य को स्वतः और प्रामाण्य को परत: मानते हैं। उनके अनुसार कोई भी ज्ञान तब तक अप्रमाण ही समझा जाता है जब तक उससे प्रेरित मनुष्य ज्ञात अर्थ को प्राप्त नहीं कर लेता। ज्ञान प्रमाण तभी समझा जाता है जब वह अर्थ का प्रापक हो जाता है। . इस मत का संकेत माधवाचार्य के 'सर्वदर्शन संग्रह' में किया गया है। परन्तु आचार्य शान्तरक्षित आदि बौद्ध विद्वानों की मान्यता इससे विपरीत है। वे अभ्यास-दशापन्न ज्ञान में प्रामाण्य और अप्रमाण्य दोनों को स्वतः और अनभ्यास-दशापन्न ज्ञान में दोनों को परतः मानते हैं। 'तत्त्व संग्रह' में इस मत का अनियम पक्ष के रूप में वर्णन किया गया है।" जैनदर्शन में प्रामाण्य और अप्रामाण्य दोनों की उत्पत्ति तो परतः तथा ज्ञप्ति अभ्यास दशा में स्वतः और अनभ्यास दशा में परत: मानी गयी है। ___जिन कारणों से ज्ञान की उत्पत्ति होती है उन कारणों के अतिरिक्त दूसरे कारणों से प्रमाणता का उत्पन्न होना परत: उत्पत्ति कहलाती है। जिन कारणों से ज्ञान का निश्चय होता है, उन्हीं कारणों से प्रमाणता का निश्चय होना स्वतः ज्ञप्ति' कहलाती है और दूसरे कारणों से निश्चय होना 'परतः ज्ञप्ति' कहलाती है। परिचित अवस्था को अभ्यास दशा और अपरिचित अवस्था को अनभ्यास दशा कहते हैं। हम अपने गाँव के जलाशय, नदी, बावड़ी आदि से परिचित हैं। अतः उनकी ओर जाने पर जो जलज्ञान उत्पन्न होता है उसकी प्रमाणता तो स्वतः ही होती है; किन्तु अन्य अपरिचित ग्रामादिक में जाने पर 'यहाँ जल होना चाहिए' इस प्रकार जो जलज्ञान होगा, वह शीतल वायु के स्पर्श से, कमलों की सुगन्धि से या पानी भरकर आती हुई पनहारिनों के देखने आदि परनिमित्तों से ही होगा। अतः उस जलज्ञान की प्रमाणता अनभ्यास दशा में परत: मानी जाएगी। तात्पर्य यह है कि विषय की परिचित दशा में ज्ञान की स्वतः प्रामाणिकता होती है। इसमें प्रथम ज्ञान की सच्चाई जानने कि लिए विशेष कारणों की आवश्यकता नहीं होती। जैसे कोई व्यक्ति अपने मित्र के घर कई बार गया हुआ है। उससे भली-भाँति परिचित है। वह मित्र-गृह को देखते ही निःसन्देह उसमें प्रविष्ट हो जाता है। यह मेरे मित्र का घर है' ऐसा ज्ञान होने के समय ही उस ज्ञानगत सच्चाई का निश्चय नहीं होता तो वह उस घर में प्रविष्ट नहीं होता। विषय की अपरिचित दशा में प्रामाण्य का निश्चय परत: होता है। ज्ञान की कारण सामग्री से जब उसकी सच्चाई का पता नहीं लगता तब विशेष कारणों की सहायता से उसकी प्रामाणिकता जानी जाती है, यही परतः प्रामाण्य है। पहले सुने हुए चिह्नों के आधार पर अपने मित्र के घर के पास पहुँच जाता है, फिर भी उसे 86 :: जैनदर्शन में नयवाद Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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